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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ
अपने आपसे दूसरे की तुलना कर सत्य को ढूढो और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री करो । समण सूत्त में इसी प्रकार की मैत्री का स्वर समतारस से युक्त होकर मुखरित हुआ है -
जं इच्छसि अप्पणतो, जंण इच्छसि अप्पणतो ।
तं इच्छ परस्स वि य, एत्तियगं जिणसासणं ॥
जो तू अपने लिए चाहता है, और जो अपने लिए नहीं चाहता; दूसरों के प्रति भी तू वैसा ही व्यवहार कर, यही समतामूलक व्यवहार या भाव जिन शासन का सार है। गीता का भी यह स्वर है -
सर्वभूतस्थमात्मानं, सर्वभूतानि चात्मनि । - ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः ॥२
जो अपने आपको सभी प्राणियों में तथा सभी प्राणियो को अपनी आत्मा में देखता है, वह समतायोग से युक्त आत्मा सर्वत्र समदर्शन करता है ।।
- अतः मनुष्य को तुच्छ स्वार्थवृत्ति छोड़कर परमार्थ-दृष्टि से चिन्तन और व्यवहार करना चाहिए, यही मैत्रीमूलक समता है । जब मनुष्य की दृष्टि आत्मौपम्य की हो जाती है, तब वह अपने संकीर्ण स्वार्थ में बन्द नहीं होता, अपने आप में केन्द्रीभूत नहीं होता। संग्रह में मैत्री का लक्षण दिया है -
'सुखचिन्ता मता मैत्री' - दूसरे प्राणियों के वास्तविक सुख की भावना या चिन्तन करना मैत्री मानी गई है।
इसी अर्थ का समर्थन तत्त्वार्थ 'राजवात्तिक एवं सर्वार्थ सिद्धि' में किया गया है --
_ 'परेषां दुःखानुत्पत्यभिलाषा मैत्री'
'दूसरों को दुःख न हो, ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है ।' इसी का १. समण-सूतं २. भगवद् गीता - ६/२९
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