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________________ ८१ समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ अपने आपसे दूसरे की तुलना कर सत्य को ढूढो और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री करो । समण सूत्त में इसी प्रकार की मैत्री का स्वर समतारस से युक्त होकर मुखरित हुआ है - जं इच्छसि अप्पणतो, जंण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि य, एत्तियगं जिणसासणं ॥ जो तू अपने लिए चाहता है, और जो अपने लिए नहीं चाहता; दूसरों के प्रति भी तू वैसा ही व्यवहार कर, यही समतामूलक व्यवहार या भाव जिन शासन का सार है। गीता का भी यह स्वर है - सर्वभूतस्थमात्मानं, सर्वभूतानि चात्मनि । - ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः ॥२ जो अपने आपको सभी प्राणियों में तथा सभी प्राणियो को अपनी आत्मा में देखता है, वह समतायोग से युक्त आत्मा सर्वत्र समदर्शन करता है ।। - अतः मनुष्य को तुच्छ स्वार्थवृत्ति छोड़कर परमार्थ-दृष्टि से चिन्तन और व्यवहार करना चाहिए, यही मैत्रीमूलक समता है । जब मनुष्य की दृष्टि आत्मौपम्य की हो जाती है, तब वह अपने संकीर्ण स्वार्थ में बन्द नहीं होता, अपने आप में केन्द्रीभूत नहीं होता। संग्रह में मैत्री का लक्षण दिया है - 'सुखचिन्ता मता मैत्री' - दूसरे प्राणियों के वास्तविक सुख की भावना या चिन्तन करना मैत्री मानी गई है। इसी अर्थ का समर्थन तत्त्वार्थ 'राजवात्तिक एवं सर्वार्थ सिद्धि' में किया गया है -- _ 'परेषां दुःखानुत्पत्यभिलाषा मैत्री' 'दूसरों को दुःख न हो, ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है ।' इसी का १. समण-सूतं २. भगवद् गीता - ६/२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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