________________
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि विश्लेषण करते हुए ‘ज्ञानार्णव'' में मैत्री का अर्थ किया है -
क्षुद्रेतरविकल्पेषु चरस्थिर-शरीरिषु । सुख-दुःखाद्यवस्थाणु संसृतेर्षु यथायथम् ॥५॥ नाना योनिगतेष्वपि समत्वेनाविराधिका । साध्वी महत्त्वमापन्ना मतिः मैत्रीति गद्यते ॥६॥ जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिताः ।
प्राप्नुवन्तु सुखं; त्यक्त्वा वैरं, पापं पराभवम् ॥७॥ 'संसार में सूक्ष्म और स्थूल भेदरूप वस स्थावर प्राणी सुख-दुःखादि अवस्थाओं में जैसे जैसे रहे हों, उनके प्रति तथा अनेक प्रकार की योनियों को प्राप्त जीवों के प्रति समता की अविराधक, महत्ता को प्राप्त, समीचीन बुद्धि मैत्रीभावना कहलाती है । मैत्रीभावना का रूप यह है - समस्त प्राणी कष्ट, दुःख एवं आपदाओं से रहित होकर जीएं, तथा दूसरों के प्रति वैर, पाप एवं अपमान आदि मैत्रीबाधक विकारों को छोड़कर सुख प्राप्त करें ।
__ 'भगवती आराधना' में मैत्रीभावना की परिभाषा के सन्दर्भ में उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक विलक्षण और सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया है : "जीवेसु मित्तचिंता मेत्ती-जीवेसु मित्तचिंता-अनन्तकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमत्वो घटीयंत्रवत् सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रताचिन्ता मैत्री ।"२
जीवों के प्रति मैत्री का चिन्तन मैत्रीभावना है। वह मैत्री चिन्तन कैसे हो? इसके लिए आचार्य कहते है - "अनन्तकाल से मेरी आत्मा रहँट की घटी के समान इस चतुर्गतिमय संसार में परिभ्रमण कर रही है; इस संसार में समस्त प्राणियों ने मेरे पर अनेक बार महान् उपकार किये हैं, अत: अब मुझे (मनुष्यजन्म में) उनका हितचिन्तन करके मैत्री-संवर्धन करना चाहिए, इस प्रकार मन में आत्मीयता की भावनापूर्वक चिन्तन करना मैत्रीभावना है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक बट्रेंड रसैल ने एक पुस्तक लिखी है - 'The world, as I see it' उसमें उसने अपना चिन्तन दिया है कि "इस संसार में मैं अगणित प्राणियों की सहायता से जी रहा हूँ। न मालूम १. ज्ञानार्णव २७/५-७ २. आव. अ. ४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org