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समत्वयोग-एक संमनवयदृष्टि है, जहाँ तक अपने से हो सकता है, समय पर भलाई करता हैं, दूसरों से उसके लिए भलाई करवाने की इच्छा रखता है उसी प्रकार जिस साधक का हृदय मैत्री भावना से परिपूरित हो जाता है, वह भी प्राणीमात्र की भलाई करने के लिए बहुत उत्सुक रहता है, सबको अपनेपन की बुद्धि से देखता है । वह किसी को भी किसी भी तरह का कष्ट नहीं देना चाहता । वह समस्त विश्व को मित्र रूप में देखता है
"मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे ।" अर्थात् मैं सब जीवों को मित्र की आँखों से देखता हूँ, मेरा किसी से भी वैर-विरोध नहीं है, प्रत्युत सब के प्रति प्रेम है। भारतीय साहित्य में मैत्री के ये ही स्वर आपको सर्वत्र गूंजते हुए सुनाई देंगे, देखिए :
"मित्ती मे सव्वभूएसु ।"२
"मैत्तं च में सव्वलोकस्सि ।'३ मेरी विश्व के सब प्राणियों के साथ मैत्री है।।
मैत्री का सामान्य लक्षण है - ‘पर हित चिन्ता मैत्री' दूसरे के हित का विचार करना, दूसरों को जिसमें वास्तविक सुख प्राप्त हो, दूसरों का कल्याण और रक्षण हो इस प्रकार की भावना करना मैत्री है। दूसरों के सुख-दुःख की अनुभूति अपनी आत्मा के समान ही करना, दूसरों की भलाई चाहना, भलाई के लिए भावना करना मैत्री है, दूसरे के प्रति निःस्वार्थ प्रेम, बन्धुत्व और आत्मौपम्य भाव रखना भी मैत्री है। मैत्री मन, बुद्धि, चित्त और हृदय को पवित्र भावना से भर देती है। इसमें स्वयं के सुख की, जीने की या स्वयं के स्वार्थ की भावना मुख्य नहीं होती। मुख्य होती है-दूसरों के सुख, हित या जीने की अथवा आरोग्य आदि की भावना ।
आत्मौपम्य की विराट् भावना मुख्यतया मैत्री के रूप में अवतरित होती है । उत्तराध्ययन सूत्र में साधक के लिये कहा गया है -
"अप्पणा सच्चमेसेज्जा मित्ती भूएहिं कप्पए''४
१. मजुर्वेद ३६।१८ २. आव. अ. ८ ३. धम्मपद ४. उत्तराध्यय-सूत्र
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