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से उत्पन्न होती हैं तथा अन्त में उसी में विलीन हो जाती हैं ।" "
"जिन्हें नाटककला का ज्ञान है वह नव रसों को उनकी निम्न विशेषताओं के साथ देखते हैं ।
समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
सम्यग्ज्ञानप्रकृतिः शान्तो विगतेच्छनायको भवति । सम्यग्ज्ञानं विषये तमसो रागस्य चापगमात् ॥
जन्मजरामरणादित्रासो वैरस्य वासनाविषये । सुखदुःखयोरनिच्छाद्वेपाविति तत्र जायन्ते ॥ दसवीं शताब्दी से पूर्व मल्लधारी हेमचन्द्रसूरिजी द्वारा रचित अनुयोगसूत्र जैन साहित्य में रचित शान्त रस के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण रचना है ।
तं जहा
णव कव्वरसा पणणत्ता,
वीरो सिंगारो अब्भुओ अ रोदो अहोई बोधव्वो ।
वेलणओ बीभच्छो हासो कलुणो पसंतो अ । निदोसमणसमाहाणसंभवो जो पसंतभोवणे ।
अविकार लक्खणो सो रसो पसंतो त्ति णायव्वो । नौ रसों की व्याख्या करते हुए शान्तरस की व्याख्या में कहते हैं पसंतो रसो जहा
सब्भावनिव्विगारं उवसंतपसंतसोमदिट्ठीअं ।
ही जह मुणिणो सोहड़ मुहकमलं पीवर सिरीअ ।
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी कृत 'काव्यानुशासन' में शांत रस की व्याख्या इस प्रकार हैं
"वैराग्यादिविभावो, यमनियमाध्यात्मशास्त्रचिंतनाद्यनुभावो, धृत्यादिव्यभिचारी शमः शान्तः "३
पंडित वाग्भट द्वारा रचित 'काव्यानुशासन' में शांत रस की व्याख्या विस्तृत
१. अभिनव 'लोकाना' पृष्ठ ३९१
२. रुद्रदत्त का काव्यालंकार, अ. १५ पे. १५-१६
३. काव्यानुशासन पू. ८०
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