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द्वितीय अध्याय समत्व का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ १. शान्त रस का अर्थ तथा महत्त्व :
आध्यात्मिक शान्ति-मानव हृदय के लिये सारभूत है। जीवन का कोई भी क्षण चाहे व सुख का हो अथवा दुःख का, आध्यात्मिक शान्ति की इच्छा किये बगैर नहीं गुजरता । यह निष्कर्ष इस बात से भी सिद्ध होता है कि जब हम महावीर और बुद्ध की प्रतिमाओं को ध्यान की मुद्रा में देखते हैं तो हमें परम शान्ति का अनुभव होता है । शान्तरस के विषय में विलक्षण बात यह है कि मनुष्य में इस भाव को अभ्यास के द्वारा पकड़ने की क्षमता है तथा जिसे यह प्राप्त हो जाता है उसे आत्मिक शान्ति प्राप्त हो जाती है जिसको प्राप्त करने के लिए योगियों, सन्यासियों और महात्माओं को भी काफी प्रयत्न करना पड़ता है।।
शान्तरस की उत्पत्ति आत्मा की स्वतन्त्रता से होती है। इसका सम्बन्ध इच्छाओं के विनाश से होता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि शान्तरस का अर्थ है शान्ति का काल्पनिक अनुभव । इसके लिये व्यक्तित्व का रूपान्तरण आवश्यक है तथा इसका अन्त परम शान्ति (cosmic peace) है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ सुख है न दुःख, न घृणा है न ईर्ष्या । सभी प्राणियों के प्रति समता का भाव है । शान्तरस आत्मा से सम्बन्धित एक वृत्ति है । ज्यों ज्यों राग-द्वेष की आकुलता कम होती जाती है और ज्ञान का आलोक फैलता जाता है, त्यों त्यों अन्तःकरण में शान्ति का विकास होता है ।
"हे राजन् ! वे कहते है कि शान्तरस का उद्भव वैराग्य से होता है। इसका व्यवस्थापन धार्मिक सामग्री, सभी प्राणियों के प्रति दया, साधना तथा दूसरों को मोक्ष मार्ग की ओर उत्साहित करने से होता है ।" ।
शान्तरस एक उच्च कोटि का आनन्द प्राप्त कराने वाला रस है । इसकी
शान्तस्य तु समुत्पत्तिर्नुप वैराग्यतः स्मृता । स चाभिने यो भवति लिङ्गगहणतस्तथा । सर्वभूतदयाध्यानमोक्षमार्ग प्रवर्तनेः ।
अभिनव 'लोकाना
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