________________
६०
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि सन् १९१६में हिन्दू विश्वविद्यालय के शिलान्यास समारोह में उपस्थित राजा-महाराजाओं को सम्बोधित करते हुए गाँधीजी ने कहा था - "ऐसे मूल्यवान आभूषण पहनने वाले राजे-महाराजे और सरदार लोग जब तक इन्हें अपने देशबन्धुओं को नहीं दे देते तब तक उनकी गरीबी दूर कैसे हो सकती है ?" ब्रिटिश हिन्दुस्तान में या अपने राजाओं की रियासतों में जब कभी कोई आलीशान इमारत बनवाई जाने की खबर मैं सुनता हूँ तो मेरे मन में विचार आता है, "अरेरे ! यह सारा रुपया किसानों से ही ठगा गया है। जब तक हम स्वयं किसानों को लूट रहे हैं या औरों को लूटने दे रहे हैं तब तक स्वराज्य पाने की हमारी तड़प सच्ची नहीं कही जा सकती । किसान ही हमारे दुःख-विमोचन के सच्चे आधार हैं, डॉक्टर, वकील या जमींदार नहीं ।"
स्वराज्य की परिभाषा में उन्होंने कहा - "सच्चा स्वराज्य मैं उसे कहता हूँ जिसका उपयोग गरीब भी कर सकता है।"
वर्ग-संघर्ष के स्थान पर उन्होंने वर्ग-सहकार का सूत्र दिया जिसका मूल स्रोत था अन्तःपरिवर्तन । यही महावीर का भी अपरिग्रह सूत्र था - प्रेम और करुणामयी सर्वात्म-तादात्म्यानुभूति का स्फोट । लेकिन उसमें संघर्ष का नकार नहीं था, संघर्ष की द्वेषमूलक भावना का नकार था। आर्थिक समत्व के लिए अहिंसात्मक प्रतिकार के संघर्ष का सूत्र गाँधी ने भी माना है तथा महावीर ने उनसे पूर्व माना
महावीर कहते हैं, "न केवल परिग्रह का विसर्जन करना बल्कि दसरों से विसर्जन कराना और जो न करे उनको किसी प्रकार का समर्थन व सहयोग न देना, उनकी सम्पूर्ण अवज्ञा करना, उनके साथ सम्पूर्ण असहयोग करना यही अपरिग्रह का तीसरा करण है । यह सब मन, वाणी और कर्म-अर्थात् भावना और व्यवहार के सारे स्तरों पर होना चाहिए । एक प्रकार से हमारे लिए वह मर चुके और हम उसके लिए मर चुके- सम्पूर्ण सत्ता का यह नकार ही त्रिविध करण विविध योग का साकार आदर्श है।" इसी को गाँधीजी ने अवज्ञा और असहकार कहा । महावीर के श्रावक व साधु के लिए तो यह नित्य जीवन-चर्या होनी चाहिए । गाँधीजी जिसे आन्दोलन का शस्त्र या सत्याग्रह कहते थे वह तो महावीर ने पाँचों ही महाव्रतों के स्तर पर अनिवार्य चर्या के रूप में माना है, व्रतों की करणयोग-व्याप्ति में प्ररूपित किया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org