________________
३१
भगवद्गीता में समत्वयोग कि व्यक्ति और उसके वातावरण के मध्य है, कर्म योग की आवश्यकता होगी। यहाँ योग की व्याख्या होगी 'योगः कर्मसु कौशलम्' । यहाँ योग युक्ति है, उपाय है जिसके द्वारा व्यक्ति वातावरण में निहित अपने भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति करता है । यह योग का व्यावहारिक पक्ष है जिसमें जीवन के व्यावहारिक स्तर पर समायोजन किया जाता है ।
वस्तुतः मनुष्य न निरी आध्यात्मिक सत्ता है और न निरी भौतिक सत्ता है। उसमें शरीर के रूप में भौतिकता है और चेतना के रूप में आध्यात्मिकता है। यह भी सही है कि मनुष्य ही जगत् में एक ऐसा प्राणी है जिसमें जड़ पर चेतन के शासन का सर्वाधिक विकास हुआ है । फिर भी मानवीय चेतना को जिस भौतिक आवरण में रहना पड़ रहा है, वह उसकी नितांत अवहेलना नहीं कर सकती। यही कारण है कि मानवीय चेतना को दो स्तरों पर समायोजन करना होता है - १. चैतसिक (आध्यात्मिक) स्तर पर और २. भौतिक स्तर पर । गीताकार द्वारा प्रस्तुत योग की उपर्युक्त दो व्यारव्याएँ क्रमश: इन दो स्तरों के सन्दर्भ में है । वैचारिक या चैतसिक स्तर पर जिस योग की साधना व्यक्ति को करनी है, वह समत्वयोग है । भौतिक स्तर पर जिस योग की साधना का उपदेश गीता में है वह कर्मकौशल का योग है ।
तिलक ने गीता और अन्य ग्रन्थों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि योग शब्द का अर्थ युक्ति, उपाय और साधन भी है। चाहे हम योग शब्द का अर्थ जोड़नेवाला' स्वीकारें या तिलक के अनुसार युक्ति या उपाय मानें दोनों ही स्थितियों में योग शब्द साधन के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है । लेकिन योग शब्द केवल साधन के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है । जब हम योग शब्द का अर्थ मनःस्थिरता करते हैं तो वह साधन के रूप में नहीं होता है, वरन् वह स्वतः साध्य ही होता है । यह मानना भ्रमपूर्ण होगा कि गीता में चित्त- समाधि या समत्व के अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं है। स्वयं तिलकजी ही लिखते हैं कि गीता में योग, योगी, अथवा योग शब्द से बने
१. अमरकोश, ३।३।२२, २. गीतारहस्य, पृ. ५६-५९, २.३ ३. गीता (शां.) १०७ ४. योगसूत्र, १२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org