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भगवद्गीता में समत्वयोग
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नहीं, संसार के चर-अचर सभी भूत-समुदय को भी आत्म- द्रष्टि से देखता है । श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करके कहा
है
अर्थात् हे अर्जुन ! जो योगी आत्म - सादृश्य से सम्पूर्ण भूतों में समदृष्टि रखता है, सुख हो या दुःख- दोनों में जिसकी दृष्टि सम रहती है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। विद्या - विनय सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, श्वान और चांडाल इन सभी को ज्ञानीजन समभाव से देखने वाले होते हैं ।
यहाँ 'समदर्शी' शब्द का प्रयोग है, 'समवर्ती का नहीं । प्रायः संकीर्ण विचार के लोग इसका अर्थ यह भी करते हैं कि गीता द्दष्टि के स्तर पर समता और व्यवहार के स्तर पर भेदभाव का प्रच्छन्न उपदेश देती है । यह श्लोक का अर्थ नहीं अनर्थ है । जैविक स्तर पर 'वर्तन' का अन्तर होना स्वाभाविक है और गुण - कर्म - विभाग के आधार पर व्यवहार भी पृथक् होते हैं । महत्त्व तो 'दृष्टि' का है, जो आत्मिक स्तर पर साधक की उपलब्धि होती है । इसलिए ज्ञानी को 'समदर्शी' कहा गया है ।
१. गीता ६।३२
२. गीता ५/१८
३. गीता १२/१५
४. गीता १२/१६
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिनः ॥
वह समदर्शित्व कर्म के द्विविध फलों या संसार के विभिन्न भूतराज में ही नहीं, हर्षशोकादि के द्वन्द्वमय मनोभावों के प्रति भी होना अनिवार्य है 1 द्वादश अध्याय में भगवद्भक्त के लक्षणों में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है । 'हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः, अनपेक्षः, उदासीन, शुभाशुभपरित्यागी', 'समदुःखसुख : ' 'तुल्यनिन्दास्तुतिः' 'अनिकेतः" पदों का प्रयोग 'समत्व - दर्शन, प्रतिपादन
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५. गीता १२/१७
६.
गीता १२/१३
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७. गीता १२/१९
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