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समत्वयोग और कार्ल मार्क्स निष्कर्ष पर पहुँचा कि विषमता और शोषण पूँजीवादी व्यवस्था की देन है, जिसके रहते हुए श्रमिक को कभी न्याय नहीं मिल सकता । उसने पूंजीवाद को एक संस्था के रूप में प्रस्तुत किया, एक ऐसी संस्था के रूप में जो मजदूरी के आधार पर जीविका-निर्वाह करने वाले व्यक्तियों की संख्या में निरंतर वृद्धि करती जाती है और इन व्यक्तियों का अपने सेवानियोजकों से केवल मजदूरी पाने का सम्बन्ध होता है। उनके पास केवल एक ही सामग्री है जिसे वे प्रतियोगिता से पूर्ण बाजार में बेच सकते हैं और वह सामग्री है काम करने की शक्ति । इस सामग्री को खरीदने वाले का एकमात्र दायित्व यह है कि वह चालू कीमत अदा करे । इस प्रकार उद्योग-धंधों में मालिक और मजदूर के बीच जो सम्बन्ध होता है उसमें न तो कोई मानवी अंश रहता है
और न नैतिक दायित्व । यह सम्बन्ध विशुद्ध रूप से शक्ति का सम्बन्ध बन जाता है। मार्क्स को यह स्थिति आधुनिक इतिहास का सबसे क्रांतिकारी तत्त्व प्रतीत हुई। इसमें एक ओर तो ऐसा वर्ग है जिसका उत्पादन के साधनों पर पूरा स्वामित्व है और जो मुमाफा कमाने में जुटा हुआ है तथा दूसरी ओर एक शोषित वर्ग है जिसकी क्षमता निरन्तर घटती जाती है और वह काल-चक्र में पिसता जाता है । मार्क्स के चिन्तन का मूलाधार यही वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त है। उसने उदयोन्मुख सर्वहारा वर्ग के लिए एक ऐसे सामाजिक दर्शन की व्यवस्था की जो एक शोषण-विहीन समाज की स्थापना की अगुवाई करे । मार्क्स समता का इतना प्रबल पक्षपाती है कि उसने शोषण के औजार राज्य को ही समूल नष्ट करने की बात कही ।
मार्क्सवादी समता की धारणा यह है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति की पद्धति के विनाश के बिना आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक समता कायम नहीं हो सकती । इस सन्दर्भ में अराजकतावादी विचारक प्रूधो का मत स्मरणीय है। उसने कहा था कि व्यक्तिगत सम्पत्ति चोरी (Property is theft) है ।
मालिक जो प्रोफिट कह कर लेता है, श्रम की चोरी कर रहा है । अधिकांश वह ले लेता है, अल्पांश बचता है उन सब के लिए जो वास्तव में मालिक हैं उस अर्थ के । नीतिशास्त्र के अनुसार होना यह चाहिए था कि अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए वांछित राशि लेता, शेष लौटाता उनको, जिनकी वास्तव में है। जीवन के साधन उसके हैं, क्योंकि सबके हैं, इसलिए
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