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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि ५. बौद्ध धर्म में समत्व-योग बोद्ध धर्म में भी समता को महत्त्व दिया गया है । अपने संगठन 'भिक्षुसंघ' को सुचारु रूप से चलाने के लिए बुद्ध ने समय-समय पर जिन नियमों का विधान किया, उन्हें 'विनय' का नाम दिया गया । वे नियम हैं, 'दश शिक्षापद' जिन्हें भिक्षुओं के श्रमण-जीवन की पहली सीढ़ी कहें तो कुछ भी अत्युक्ति नहीं होगी । इन शिक्षापदों में पहला है अहिंसा - प्राणातिपात से विरत होना । इस शिक्षापद से बुद्ध का समतावादी दृष्टिकोण प्रकट होता है । इसके अनुसार किसी भी जीव का वध करना मना है । बाद में चलकर जब विनय के नियम और जटिल बनाये गये, तब तो इस शिक्षापद का उल्लंघन करने वाला सबसे कठोर दण्ड का भागीदार माना गया । वह दण्ड था ‘पराजिक', जिसके अनुसार अपराधी भिक्षु को संघ से हमेशा के लिए अलग कर दिया जाता था ।
अपने पहले धर्मोपदेश में - जिसका नाम 'धम्मचक्कपवत्तन सुत्त' दिया गया - बुद्ध ने अपने खोजे हुए सत्यों को स्पष्ट करते हुए कहा था कि दुःख है, उसका कारण भी है और यह कि उसका निरोध भी है ।
बौद्ध धर्म श्रमण, ब्राह्मण या भिक्षु सबके लिए समता को अनिवार्य मानता है। "जो समभाव बरतता है, शान्त,दमनशील, संयमी और ब्रह्मचारी है, जिसने दंड का त्याग कर रखा है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है और वही भिक्षु :
अलंकतो चे पि समं चरेय्य सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी । सव्वेसु भूतेसु निधाय दण्डं सो ब्राह्मणो समणो स भिक्खु ॥
भगवान् बुद्ध कहते हैं- "दंड से सभी डरते हैं । सबको जीवन प्रिय है । अतः अपने समान ही सबका सुख-दुःख जानकर न स्वयं किसी को मारे और न अन्य किसी को मारने के लिए प्रेरित करे ।'
सव्वे तसन्ति दंडस्स सव्वेसं जीवनं पियं ।
अप्पानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ आगे चलकर बुद्ध कहते हैं - "सब जीव अपने सुख की कामना करते हैं । इसलिए जो दंड देकर दूसरे की हिंसा नहीं करता, वही सुख की
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