________________ PP Ad Gunathan MS का मार पुत्र रूप्यकुमार को देना चाहा, किन्तु वार एवं नीति-निपुण पुत्र रूप्यकुमार ने कहा-'हे तात् / / यह कैसे हो सकता? युवा पुत्र के रहते मला पिता को युद्ध-भूमि में जाना पड़े, तो संसार में सर्वत्र उपालम्भ ही मिलेगा।' रुप्यकुमार स्वयं सेना के साथ जाने को उद्यत हुआ। फिर भी राजा भीष्म ने कहा-'हे पुत्र ! तुम्हें कुल परम्परा से प्राप्त एवं शत्रु को बाधा से रहित राज्य की रक्षा करनी चाहिये / युद्ध के लिए तो मुझे जाने दो।' विनयी कुमार ने शिष्टाचार में मस्तक नत कर लिया एवं तत्पश्चात् निवेदन किया-'हे तात! माता-पिता को सुखी रखना पुत्र का कर्तव्य होता है। अतः मैं आप को कैसे जाने दूं? पुत्र की ऐसी उक्ति सुन कर मीष्म ने कहा-'हे पुत्र ! अभी तेरी अवस्था ही क्या है ? तू सुकुमार है। तुझे युद्ध का ज्ञान नहीं है। अतः तेरा शत्रु के सम्मुख जाना कदापि वांछनीय नहीं है।' प्रत्युत्तर में कुमार कहने लगा- 'हे तात् / शक्ति का परीक्षण चपलता से ही होता है, अवस्था आदि से नहीं। विशालकाय होने पर भी गजराज अपने से भाकार में छोटे सिंह के गर्जन से ही पलायन कर जाते हैं। आप के आशीर्वाद से मैं अनायास ही शत्र दल को परास्त करूँगा।' पुत्र की वीरतापूर्ण वाणी सुन कर राजा भीष्म को सन्तोष हुला। उन्होंने शुभ शकुनों की प्रेरणा से प्रसन्नता के साथ राज शिशपाल की सहायता के लिए पुत्र को विदा किया। युद्ध में शिशपाल को सफलता मिली एवं वह शत्रु सेना पर विजय प्राप्त कर अपने नगर को लौटा। शिशुपाल यह समझता था कि रूप्यकमार की सेना की सहायता से ही सफलता मिली है। अतएव रुप्यकुमार उसका स्नेहपाना शिशपाल ने उस का विपुल सम्मान किया। उसके स्वागत से प्रसन्न हो कर रूप्यकुमार ने उसके साथ अपनी भगिनी (रुक्मिणो) के विवाह की स्वीकृति दे दी। इससे चेदिपति को अपूर्व मानन्द की अनुमति हुई। उन्होंने मूल्यवान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर रूप्यकुमार को विदा किया। इस समाचार से राजा भीष्म को भी आनन्द प्राप्त हुआ। रूप्यकुमार का शिशुपाल के यहाँ जाने का यही वृत्तान्त है।' तत्पश्चात् बुजा ने रुक्मिणी से कहा-'हे पुत्री! अब तुझे ज्ञात हो गया कि शिशुपाल के संग विवाह की स्वीकृति तेरे भ्राता ने दी है, माता-पिता ने नहीं। अतएव चिन्ता मत कर, भावी परिणाम शुभ ही होगा। मैं ऐसा प्रबन्ध करूँगी कि श्रीकृष्ण अवश्य तेरे पति हों।' रुक्मिणी को अतीव प्रसन्नता हुई। श्रीकृष्ण का भावी समागम सुन कर उसे भी संतोष हुमा। नारद मुनि श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते हुए कैलाश को लौट गये। Jun Gun Aaradhak Trust