________________ कुमार का शुभागमन हुआ है।' एक कामिनी ने अपनी सखियों से कहा-'देखो सखी! यह वही प्रद्युम्न है, जिसे दुष्ट दैत्य हर कर ले गया था एवं विद्याधर राजा ने जिसका पालन किया। अब यह षोडश लाभ एवं अनेक विद्यायें प्राप्त कर लौटा है। इसक पुण्य बल से शत्रु भी मित्र हो गये हैं।' एक अन्य नारी तत्काल बोल ||162 उठी- 'अरी मूर्खा ! तू क्या बारम्बार प्रशंसा करती है ? ये सब सिद्धियाँ तो पूर्व-पुण्य से प्राप्त होती हैं। इसने पूर्व-भव में घोर तप किया होगा, सत्पात्रों को दान दिया होगा, श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा की होगी एवं निर्मल चारित्र धारण किया होगा, फलतः उसका ऐसा उत्कृष्ट पुण्योदय हुआ। यही कारण है कि उसे प्रद्युम्न का जन्म मिला ; अन्यथा ऐसी विद्याएँ, वीरता एवं रमणीय लक्ष्मी सदृश वधू कैसे प्राप्त होती?' ___ कुमार गजराज पर आरूढ़ था। उसके मस्तक पर श्वेत छत्र था एवं चँवर दुल रहे थे। वह चन्द्रमा के सदृश दर्शनार्थी नारियों के नेत्ररूपी कुमुदनी को प्रफुल्लित करते हुए महल में जा पहुँचा। माता रुक्मिणी ने अर्घ, पात्र आदि से मङ्गल क्रिया की। केवल सत्यभामा एवं भानुकुमार ही उस उत्सव में सम्मिलित नहीं हुए। समस्त द्वारिका नगरी इस हर्षोत्सव में तन्मय हो गई। कुमार तथा अनेक मित्र राजा कितने ही दिवस पर्यंत रुक्मिणी के महल में ठहरे। एक दिन यादवों की सभा में महाराज श्रीकृष्ण ने मन्त्रियों से कहा-'मेरी अभिलाषा है कि कुमार का विवाह महोत्सवपूर्वक सम्पन्न हो।' किन्तु कुमार ने प्रार्थना की कि महाराज कालसंवर एवं रानी कनकमाला की उपस्थिति में ही उसका विवाह होना चाहिये। तब दूत ने कालसम्वर के निकट कुमार की प्रतिज्ञा सुनाई कि आप की अनुपस्थिति में वह विवाह नहीं करेगा। प्रथम तो कालसम्वर को आने में सङ्कोच हुआ, किन्तु शीघ्र ही उसका विचार परिवर्तित हो गया। वह एक विशाल सेना के सङ्ग रानी कनकमाला एवं रतिकुमारी को उसके पिता के साथ ले कर द्वारावती में जा पहुँचा। अपने पालनकर्ता दम्पति का आगमन सुन कर कुमार स्वयं स्वागत के लिये गया। उसने आदरपूर्वक कालसम्वर तथा कनकमाला के चरणों में नमस्कार किया। रुक्मिणी तथा श्रीकृष्ण भी उनसे आदरपूर्वक मिले। उन्हें वाद्यों के साथ नगर में प्रवेश कराया गया। नगर की सुन्दर सजावट हुई। मङ्गल वाद्यों की ध्वनि एवं स्त्रियों के मधुर गीतों से सम्पूर्ण द्वारावती की छटा बड़ी ही सुहावनी लगती थी। कहीं ध्वजा-तोरण आदि लटकते थे, तो कहीं गज-यूथ, रथ-समूह तथा छत्र-वृन्द 162