Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirti Acharya
Publisher: Jain Sahitya Sadan

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Page 181
________________ 278 उसके चतुर्दिक 20 हजार सीढ़ियाँ बनी हुईं थीं। उस पर सुवर्ण आदि से निर्मित तीन कोट एवं चार मानस्तम्भ थे। इसके अतिरिक्त नाट्यशाला, वन, वैदिका तथा सरोवर की रचना थी। पीठिका के मध्य में तीन सिंहासनोंवाला कल्याण रूप सिंहासन था, जो कि कल्पवृक्षों से सुशोभित था / श्रावक तथा निर्ग्रन्थ मुनियों से सुशोभित द्वादश प्रकोष्ठ थे, जहाँ की भूमि रत्नमयी थी। सिंहासन पर अधर में भगवान श्री जिनेन्द्र विराजमान थे। सुर-असुर उनकी वन्दना करते थे। मस्तक पर तीन छत्र शोभित थे एवं 64 चँवर दुरते थे। उनके वरदत्त आदि ग्यारह गणधर थे। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने ऐसे अनुपम समवशरण की रचना की थी। द्वारावती के जन-साधारण को जब ज्ञात हुआ कि भगवान नेमिनाथजी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, तब समग्र नगर-निवासी उनकी वन्दना के लिए आये। श्रीकृष्ण, समुद्रविजय आदि यादव श्रेष्ठ ; शिवादेवी, देवकी, सत्यभामा, रुक्मिणी आदि रानियाँ; उग्रसेनादि राजा वृन्द भी आये। समवशरण की रचना को अवलोक कर वे सब-के-सब आश्चर्यचकित रह गये। वे लोग तीन प्रदक्षिणा देकर एवं विधिपूर्वक पूजा कर मनुष्यों के लिए निर्धारित प्रकोष्ठ में बैठे। राजमती भी पाँच हजार रमणियों के संग समवशरण में पहुँची एवं भगवान को नमस्कार कर दीक्षित हुई। उस समय जितनी भी रानियाँ आर्थिका हुईं, राजमती उन सब की अधिष्ठात्री बनी। ___ कुछ काल पश्चात् श्री वरदत्त गणधर ने श्री जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना की—'हे प्रभो ! प्राणी-मात्र अनादि काल से मिथ्यात्व की तृषा से पीड़ित है। इनकी तृप्ति के लिए आप धर्म-रूपी मेघ को प्रकट कीजिये।' उस समय श्री जिनेन्द्र भगवान भव्य जीवों के कल्याण के लिए धर्म के स्वरूप का वर्णन करने लगे। उनकी मधुर वाणी में चारों अनुयोग, द्वादश अङ्ग, रत्नत्रय तथा सप्त तत्वों का सार था। भगवान ने बतलाया—'संसार ताप को विनष्ट करनेवाले धर्म के दो भेद हैं-एक मुनियों का धर्म होता हैं एवं दूसरा गृहस्थों का। दिगम्बर मुनियों का चारित्र त्रयोदश प्रकार का होता है-पञ्च महाव्रत, पञ्च समिति एवं त्रि-गुप्ति / इसके अतिरिक्त अट्ठाईस मूल गुण, 84 लाख उत्तर गुण तथा प्रति दिन षट् आवश्यक | कर्म हैं। इस निर्मल चारित्र का पालन कर मनि लोग शाश्वत सख प्राप्त करते हैं। पाँच अणवत. तीन गण एवं चार शिक्षाव्रत-ये द्वादश चारित्र गृहस्थों के हैं। सत्पुरुषों को श्रावकाचार, सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय का निरन्तर पालन करना चाहिये। मुनियों के सदृश गृहस्थों के भी मूलगुण Jun Gun A Y 178

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