________________ मूत्र तक डलवाया। तब इस नीच कृत्य से मुनि को कुछ क्रोध अवश्य उत्पन्न हुआ। वे कठिन प्रहार से भूतल || पर गिरे हुए तो थे ही। उधर वे अविवेकी राजकुमार द्वारावती में लौट आये।। इस दुर्घटना का सम्वाद जब श्रीकृष्ण एवं बलभद्र को मिला, तो वे तत्काल मुनि के समीप जा पहुँचे। 112 उन्होंने मुनि से प्रार्थना की- 'हे प्रभो ! आप योगीन्द्र हैं। अविवेकी युवकों का अपराध क्षमा कीजिये / ' तब मुनि ने क्रोधित हो कर उनकी ओर देखा एवं इङ्गित से स्पष्ट किया कि केवल तुम दोनों ( श्रीकृष्ण-बलदेव) के अतिरिक्त समस्त द्वारिका भस्म हो जायेगी मुनि के वाक्य को ध्रुव सत्य समझ कर नारायण एवं बलदेव नगर में गये। उन्होंने सब से कहा—'चलो कहीं प्राण-रक्षा की जाय। यदि यहाँ कोई रहेगा, तो उसका विनाश अवश्यम्भावी है।' यह सुन कर शम्भुकुमार, सुभानुकुमार एवं प्रद्युम्र-पुत्र अनिरुद्धकुमार गिरनार पर्वत पर चले गये। अपने कर (हाथ) से अपने शीश का केशलोंच कर तथा अपने वस्त्राभूषणों का परित्याग कर उन्होंने वराग्यपूर्ण उज्ज्वल चारित्र धारण कर लिया। तत्पश्चात् द्वीपायन मुनि की तैजस देह से द्वारिका का भस्म होना एवं जरत्कुमार के शर-सन्धान से नारायण श्रीकृष्ण की मृत्यु की कथा ‘हरिवंश पुराण' में विस्तार से वर्णित है। इस कथा को दुःखान्त समझ कर नहीं लिखा गया। शम्भुकुमार आदि तप करने में संलग्न थे। उन्होंने आर्त-ध्यान तथा रौद्र-ध्यान का परित्याग कर शुक्ल-ध्यान ग्रहण किया था। उसी समय पर्वत पर श्री नेमिनाथ भगवान का पवित्र आगमन हुआ। तीनों राजकुमारों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। वे पुनः षट् प्रकार के तप करने लगे। उनका तप दुर्द्धर था। हेमन्त में उन्मत्त पवन में एवं ग्रीष्म में पर्वत के शिखर पर उनका योग धारण होने लगा। वर्षा काल में वक्ष के तले बैठ कर तप करते उन्हें किंचित मात्र कष्ट नहीं होता था। चतुर्दश वर्षों तक कठिन तप करने के पश्चात् उनके घातिया-कर्म समूह नष्ट हुए। समस्त संसार को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उन्हें प्राप्त हआ। वे तीनों केवलज्ञानी मुनि श्री नेमिनाथ भगवान के साथ विहार करने लगे। भगवान श्री नेमिनाथ ने जैन धर्म का प्रसार कर संसार के भव्य-जीवों का मडल साधन किया। उनको चरण-रज से सर-असर तथा मनुष्यों के स्थान पवित्र हुए। विद्याधर, चक्रवर्ती, देवेन्द्र आदि पग-पग पर उनकी वन्दना करते थे। भगवान पुनः गिरनार की सिद्ध-शिला पर आसीन हुए। उन्होंने पर्यङ्काशन योग से अघातिया-कर्म एवं उनकी प्रकृतियाँ Jun Gun arc CY |262