Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirti Acharya
Publisher: Jain Sahitya Sadan

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Page 190
________________ संसार में चिरकाल तक भ्रमण कर मानव जन्म पाता है एवं श्रेष्ठ कुल में जन्म पाना अत्यधिक कठिन है।। इसके उपरान्त राज्य एवं वैभव को भी प्राप्त होना तो अत्यन्त दुर्लभ है। ये समग्र दुर्लभ वस्तुएँ मुझे अनायास प्राप्त हुईं। किन्तु अब मानव जीवन का जो यथार्थ कर्तव्य है, उसकी पूर्ति करना चाहिये। इस प्राणी को नारियों | या ||287 के लिए सब कुछ करना पड़ता है। सदैव विषयों में अनुरक्त रह कर काल के गाल में तक जाना पड़ता है। नारियों के लिए धन की आवश्यकता होती है तथा धन के लिए युद्ध आदि कार्य करने पड़ते हैं। तात्पर्य यह कि ऐसा एक भी उसका कार्य नहीं, जिसे मनुष्य नारी-संयोग के लिए नहीं करता। तुम लोगों के सङ्ग भी भोग भोगते हुए मेरी कामतृष्णा की तृप्ति नहीं हुई, वरन् वह उग्रतर ही हुई है। इसलिये मेरा गृहस्थी में रहना अब उचित नहीं, अतएव तुम सब को मेरे प्रति क्षमाभाव धारण करना चाहिये।' प्रद्युम्न के वैराग्य-जन्य वचनों से रति आदि उसकी रानियाँ दुःख से व्याकुल हो गयीं। उन्होंने करबद्ध विनती कर कहा—'हे नाथ! हमारे आश्रय तो आप ही हैं। हम सब आपकी शरण में हैं। जब हम आपके सड़ भोग में सम्मिलित रहीं. तो अब दीक्षा लेकर आप के सङ्ग तपश्चरण भी करेंगी। अतराव आप प्रसन जिन-दीक्षा ग्रहण करें। हम सब भी भगवान के बतलाये हुए व्रत ग्रहण करेंगी एवं उनकी वन्दना करेंगी। आप भो संसार का त्याग करें एवं हम भी आर्यिका राजमती के समीप दीक्षा व्रत धारण कर उत्कृष्ट तप करेंगी।' अपनी पत्नियों के ऐसे वैराग्य-युक्त वचन सुन कर कुमार को हार्दिक प्रसन्नता हुई। उसने यह समझा कि उसे संसार रूपी कारावास से मुक्ति मिल गई हो। प्रद्युम्न अपने सङ्गियों के साथ गजराज पर आरूढ़ होकर घर से बाहर निकला। नगर-निवासियों ने उसकी यथेष्ट प्रशंसा की। किसी ने कहा-'नारायण श्रीकृष्ण स्वयं जिसके पिता, त्रैलोक्य सुन्दरी रुक्मिणी जिसकी माता, कलासंयुक्ता एवं सुलक्षणा जिसकी पत्नियाँ हों, जब वह भी तपस्या के लिए प्रस्तुत हो, तब भला इससे श्रेष्ठ संयोग क्या हो सकता है ?' एक चतुर पुरुष बोल उठा-'सम्पूर्ण शास्त्र-पारङ्गत प्रद्युम्न सांसारिक सुखों को ठुकरा कर मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा | से तपस्या के लिए उद्यत हुआ है, उसका दयालु हृदय वैराग्य से परिपूर्ण हो रहा है।' इस तरह वार्तालाप करते हुए वे नागरिक-वृन्द भी उदासीन-चित्त प्रद्युम्न से कहने लगे-'हे गुणों के समुद्र ! आप की कीर्ति संसार में व्याप्त हो। आप संसार की असारता को स्मरण करते हुए आत्म-कल्याण करते रहें।' जन- ||

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