Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirti Acharya
Publisher: Jain Sahitya Sadan

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Page 167
________________ P.P.AL Gurransuri MS. थे। विवाहादि कार्य समाप्त हो जाने पर वे अपने मनोनुकूल गन्तव्य को प्रस्थान कर गये। पितृभक्त कुमार देव-पूजादि कर्मों में सदा तत्पर रहता था। अपनी पत्नियों के मुखरूपी कमलों पर गुआर करते हुए उसने कितना समय आनन्दपूर्वक बिताया, यह कहना कठिन है। हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं कि कुमार के 264 विवाह से सत्यभामा घोर अप्रसन्न हुई थी। उसने अपनी सान्त्वना के लिए भानुकुमार के विवाह का आयोजन किया। देश-विदेश से राज-कन्यायें आमन्त्रित की गयीं। उत्सव सहित भानुकुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। वह प्रतिभावान एवं सर्वगुणसम्पन्न राजकुमार भी सर्वप्रकार सुख भोगते हुए अपना समय व्यतीत करने लगा। समग्र भूतल पर कुमार की कीर्ति-दुन्दुभी बजने लगी। नगर हो या हाट-चतुर्दिक उसी का गुणगान हो रहा था। कुमार को यह समस्त कीर्ति पुण्य के प्रभाव से प्राप्त हुई थी। वस्तुतः स्वजनों से सम्मिलन, पापरहित अर्थ की प्राप्ति, अनुचरों की सेवा प्राप्त होना-ये समस्त कार्य पुण्यरूपी वृक्ष के ही फल स्वरूप हैं। धर्म से समग्र सुखों का प्राप्त होना सम्भव है। धर्म से निर्मल कीर्ति, शत्रुओं का पराभव, विवेक आदि प्राप्त होते हैं / पवित्र धर्म ही एक ऐसो वस्तु है, जिससे संसार के समग्र ताप विनष्ट होते हैं। अतएव भव्य पुरुषों को उचित है कि श्रीजिनेन्द्र भगवान के निर्देशित धर्म का सदा तन-मन से पालन करें। द्वादश सर्ग पूर्व में यह वर्णन किया जा चुका है कि प्रद्युम्न द्वारिका में सुखपूर्वक वैभव का उपयोग कर रहे थे। अब हम कीर्तिशाली शम्भुकुमार के दिव्य चरित्र का वर्णन करते हैं। कुमार के पूर्व-भव के कैटभ नाम का अनुज 'षोडशवें स्वर्ग में इन्द्र हुआ था। एक दिन वह विमान में बैठा हुआ यह विचार करने लगा कि श्रीजिनेन्द्र भगवान | की वन्दना करना चाहिये। ऐसा निश्चय कर वह विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नामक प्रख्यात नगरी में गया। वहाँ के राजा का नाम पद्मनाभि था। वहाँ पहुँच कर उसने बड़ी भक्ति के साथ श्रीजिनेन्द्र भगवान की वन्दना , की एवं उनके कथनानुसार धर्म के स्वरूप का अध्ययन किया। इसके पश्चात् उसने नमस्कार कर जिज्ञासा | की--'हे जगत्पालक विश्वनाथ ! कृपा कर आप मेरे भवान्तरों का वर्णन कीजिये।' तीर्थङ्कर भगवान ने उसके ब्राह्मण भव से लेकर इन्द्र भव तक का वर्णन किया, जैसा कि नारद से कहा था। अपने पूर्व-भवों का Jun Gun Aaradhak 264

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