________________ श्रीकृष्ण की रानी हूँ। वे तीन लोक के स्वामी एवं सुदर्शनधारी हैं। एकबार उन्होंने 'सारङ्ग' नामक धनुष खींच कर उसे गोलाकार बना दिया था एवं नाग-शैय्या पर आरूढ़ होकर ‘पाँचजन्य' नामक शङ्ख बजाने में समर्थ हुए थे। ऐसे महान् पराक्रमी का तो साहस होता नहीं कि ऐसे निकृष्ट कार्य की मुझे आज्ञा दें। फिर भी यदि आप को आज्ञा-पालन करवाने की प्रबल आकांक्षा है, तो किसी राजकन्या से विवाह क्यों नहीं करते ?' ||275 / जाम्बुवन्ती का कथन श्री नेमिनाथ को शर-प्रहार सदृश लगा, पर रुक्मिणी ने स्थिति को सम्भाल लिया। उसने कहा-क्यों व्यर्थ में वाद-विवाद करती हो। श्री नेमिनाथ के समकक्ष कोई वीर तो त्रिलोक में भी नहीं है।' फिर भी श्री नेमिनाथ का आवेश शान्त न हुआ। वे आयुधशाला में जा पहुंचे। वहाँ सुदर्शन चक्र लेकर वे नागशैय्या पर आरूढ़ हो गये। उन्होंने सारङ्ग धनुष को चढ़ा कर उसे गोलाकार बना दिया। तत्पश्चात् चक्र को घुमा कर नागों का मान-मर्दन करते हुए नासिका से शङ्खनाद किया। शङ्ख के प्रचण्ड घोष को सुन कर स्वयं श्रीकृष्ण दौड़ते हुए वहाँ आ पहुँचे। श्री नेमिनाथ को इस अवस्था में देख कर वे कहने लगे—'एक नारी के कथनमात्र से रुष्ट होकर आप यह क्या कर रहे हो ? उठो तथा क्रोध का परित्याग करो।' इस प्रकार नारायण श्रीकृष्ण उन्हें सन्तुष्ट कर महल में लेकर गये। इसके उपरान्त श्रीकृष्ण को एक अन्य चिन्ता सताने लगी। उन्होंने माता शिवादेवी से जाकर कहा-'हे मातुश्री! श्री नेमिनाथ विवाह करने योग्य हो गये हैं। अतएव उनका विवाह कर देना अब आवश्यक है।' शिवादेवी ने उत्तर दिया-'इसके लिए मेरी आज्ञा की क्या आवश्यकता है ? तुम जैसा उचित समझो, वैसा ही करो।' श्रीकृष्ण ने बलदेव से परामर्श किया। तत्काल ही राजा उग्रसेन के यहाँ कन्या की याचना की गयी। द्वारिका में श्री नेमिनाथ के विवाह का उत्सव होने लगा। यदुवंशी एवं भोजवंशी राजागण अपनी रानियों के साथ द्वारिका आ पहुँचे। स्थान-स्थान पर बन्दनवार बंधे, घर-घर मङ्गल गान होने लगे। महाराज उग्रसेन के यहाँ भी उत्सव की तैयारियाँ हुईं। जूनागढ़ में उनके बन्धु-बान्धव एकत्र हुए। दोनों ओर आनन्द-ही-आनन्द परिलक्षित होने लगा। उस विवाह के उत्सव की प्रशंसा ही भला क्या की जा सकती है, जिसमें स्वयं भावी तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ वर हों एवं त्रिलोक सुन्दरी राजमती सदृश वधू हो? ___ वर को लाने के लिए उग्रसेन ने उत्तम-उत्तम सवारियाँ भेजी थीं। रथ पर आरूढ़ होने के पूर्व शिवादेवी. 175