Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirti Acharya
Publisher: Jain Sahitya Sadan

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Page 169
________________ कहने लगी- 'मैं अब अन्य पुत्र नहीं चाहती। तू ही मेरे लिए पर्याप्त है। हाँ, मेरी एक सौत जाम्बुवन्ती भी है, " किन्तु देववश उसका तेरे पिता के साथ विरोध भी है। यदि उसके गर्भ से उस देव का अवतार हो, तो उसके दुःख की निवृत्ति हो जायेगी।' जननी की मनोकामना सुन कर वह उसी समय जाम्बुवन्ती के महल में गया। || 266 उसने समस्त वृतान्त जाम्बुवन्ती को सुना दिया। वह भी बड़ी प्रसन्न हुई। उसने कहा-'तू चतुर तो है ही, जो इच्छा हो सो कर।' उसका स्वीकृति भरा उत्तर सुन कर प्रसन्न-वदन कुमार अपने महल में लौट आया। - कुछ काल कष्ठ काल पश्रात ही वसन्त का आगमन हआ। वक्ष पल्लवित होने लगे-आम्र-वक्षों में बौर लगने लगीं। कोयल की कुहूक एवं भ्रमरों की मधुर गुआर से उद्यानों की शोभा शताधिक गुणा बढ़ गई। चैत्र मास की दशमी तिथि आयी। पूर्व निश्चय के अनुसार महाराज श्रीकृष्ण सत्यभामा से आने का अनुरोध कर वन-क्रीड़ा के लिए गये। वे रैवतक पर्वत पर पुत्र-की कामना से तीन दिवस पर्यन्त रहे / इधर कुमार ने जाम्बुवन्ती के महल में जाकर उसे एक विलक्षण मुद्रिका प्रदान की, जिसे धारण करनेवाला मनोवांछित रूप धर सकता था। फलतः उसने आश्चर्यजनक रूप से सत्यभामा का रूप धारण कर लिया। जब वह दर्पण के सम्मुख गयी, तब अपने को सत्यभामा के रूप में अवलोक कर बड़ी प्रसन्न हुई। कुमार ने कहा- 'जब आपका कार्य हो जाए, तब यह मुद्रिका मुझे लौटा देना।' तत्पश्चात् वह पालकी में आरूढ़ होकर श्रीकृष्ण के समीप वन में गयी। वे सत्यभामा की प्रतीक्षा में तो थे ही, एकाएक उसका आगमन जान कर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा'हे देवी ! तुम्हारा आगमन अवश्य ही सफल होगा। प्रद्युम्न का अनुज तुम्हारी कोख से जन्मग्रहण करेगा। यह तो उत्तम ही रहा कि कुमार को यह रहस्य ज्ञात न हो सका, अन्यथा वह कोई माया रच देता।' इतना कह कर नारायण कृत्रिमं सत्यभामा के साथ रति क्रीड़ा करने लगे। वह भी अपनी काम-चेष्टाओं से उन्हें विह्वल कर रमण करने लगी। इस प्रकार जाम्बुवन्ती का गर्भ स्थिर हो गया। श्रीकृष्ण ने वह दिव्य हार भी उसे पहिना दिया। किन्तु जाम्बुवन्ती ने जब अपनी मुद्रिका उतारी, तो उसका वास्तविक स्वरूप प्रकट हो गया। नारायण श्रीकृष्ण जाम्बुवन्ती को अवलोक कर अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने जिज्ञासा की—'क्या यह प्रद्युम्न की माया है ?' जाम्बुवन्ती उनके चरणों पर लोट गयी। वह विनती करने लगी- 'हे नाथ! अब पुरातन वैमनस्य का निवारण कीजिये।' तब श्रीकृष्ण ने उसे क्षमा प्रदान की एवं सहास्य कहा-'आज से तू मेरी ADMRAANVARDHAKHRAAMAainda

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