________________ P.P Ad Gunun MS इसलिये भव्य पुरुष सदा पुण्य-कार्य में संलग्न रहते हैं। पाप ही दुःख का कारण बनता है एवं पुण्य से सुख / की प्राप्ति होती है। प्रद्युम्न को पुण्य के बल से ही समस्त निधियाँ प्राप्त हुईं एवं वै सर्वत्र विजयी हुए। |28 दशम सर्ग नारद ने द्वारिका हेतु प्रस्थान के लिए उत्कट अभिलाषा प्रकट की, किन्तु उस समय कुमार ने कहा'हे मुनिवर! मैं प्रस्थान के लिए तत्पर हूँ; किन्तु बिना माता-पिता से आज्ञा लिए प्रस्थान करना वछिनीय न होगा। इसलिये आप कुछ काल तक यहीं ठहरें; मैं शीघ्र ही उनकी अनुमति लेकर आता हूँ।' नारद को वहीं छोड़ कर तब कुमार राजमहल में जा पहुँचे। राजा कालसम्वर वहाँ रानी कनकमाला के साथ शोकाकुल अवस्था में बैठे थे। प्रद्युम्न ने प्रणाम कर प्रार्थना की- 'हे पिताश्री, मुझे क्षमा कीजिये / यद्यपि मैं अपराधी हूँ, किन्तु आप ने ही मेरा लालन-पालन किया है। इसलिये आप मेरे अपराधों को भी क्षमा कर दें। अब मैं अपने जनक-जननी से मिलने के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ, अतराव मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान करें। मैं उनसे मिल शीघ्र ही लौटूंगा।' इस तरह प्रद्युम्न ने कनकमाला से भी निवेदन किया। इसके पश्चात् राज-सेवकों से भेंट कर उसने द्वारिका के लिए प्रस्थान किया। उस समय समस्त गुणग्राही नगर-निवासी वीर कुमार प्रद्युम्न का यशोगान कर रहे थे। __इधर कुमार की प्रतीक्षा में नारद खड़े थे। कुमार ने आते ही पूछा-'हे तात! यह तो बतलाइये कि यहाँ से द्वारिका नगरी कितनी दूर है।' नारद ने बतलाया कि यह तो विद्याधरों का देश है एवं द्वारिका मनुष्यों की नगरी है। अतएव वह यहाँ से सुदूर स्थित है, किन्तु मैं तुम्हें शीघ्रगामी विमान में बैठा कर ले चलँगा। नारद ने तब एक शीघ्रगामी विमान तैयार किया एवं फिर कुमार से कहा- 'हे वत्स ! यह विमान तुम्हारे योग्य ही बना है। इसलिये इस पर बैठने में शीघ्रता करो।' नारद के कथन पर प्रसन्न होकर कामदेव | (कुमार) ने विनोद में कहा-'क्या यह विमान मेरा भार वहन कर सकेगा ?' नारद कहने लगे- 'वाह ! क्यों नहीं, यह तो पर्याप्त दृढ़ है।' कामदेव ने बड़े वेग से विमान में अपना चरण धरा, फलस्वरूप उसी समय विमान की सन्धियाँ भङ्ग हो गयीं एवं उसमें सैकड़ों छिद्र हो गये। परिहास में कुमार कहने लगे-'हे प्रभो! Jun Gun Arch 128