Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirti Acharya
Publisher: Jain Sahitya Sadan

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Page 161
________________ PP Ad Gunathan MS अपना रथ धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ाने लगा। किन्तु उसी समय नारायण श्रीकृष्ण की दक्षिण (दाहिनी) भुजा एवं नेत्र फड़कने लगे, जिसका सामुद्रिक शास्त्र में अर्थ इष्ट-मिलन की सूचना था। महाराज श्रीकृष्ण की समझ में यह नहीं आया कि संग्राम में अजेय शत्रु के समक्ष उपस्थित होने पर यह शुभ शकुन कैसा हो रहा है ? क्या ||258 इसका यह अर्थ तो नहीं है कि रुक्मिणी मुझे प्राप्त होगी? शत्रु सन्मुख आया तब श्रीकृष्ण का हृदय स्नेह से || भर आया। वे कहने लगे-'हे रिपु! यद्यपि तू ने मेरी पत्नी का अपहरण किया है, फिर भी तुझे देख कर मेरा स्नेह बढ़ता है। इसलिये यही उत्तम होगा कि तू मेरी भार्या को मुझे सौंपदे। तब मैं तुझे जीवित ही छोड़ दूंगा।' कुमार ने हँसते हुए कहा-'हे सुभट शिरोमणि! इस रणभूमि में जहाँ प्रसन्नतापूर्वक मरण गर्व की वस्तु है, वहाँ स्नेह कैसा ? मैं आप की भार्या का अपहरणकर्ता एवं आप के अग्रज का हन्ता हूँ। यह विचित्र संयोग है कि आप मुझ से स्नेह करने लगे हैं। यदि आप में अब सामर्थ्य न हो, तो मुझ से अपनी भार्या की मुक्ति हेतु याचना करें।' अब तो श्रीकृष्ण क्रोध में अग्निपुञ्ज बन गये। वे धनुष चढ़ा कर शत्रु पर टूट पड़े। किन्तु शर-सन्धान के पूर्व ही कुमार ने उनके धनुष की प्रत्यश्चा को भङ्ग कर डाला। इस प्रकार जब-जब वे धनुष चढ़ा कर शर-सन्धान की चेष्टा करते, तब-तब कुमार धनुष की प्रत्यञ्चा को काट डालता था। उसने हँसते हुए श्रीकृष्ण को चिढ़ाने के उद्देश्य से कहा-'आप को धनुष चलाने में ऐसी निपुणता कहाँ मिली ? आप तो अपनी विशाल सेना के नायक हैं। पर जिसे धनुष चलाना ही नहीं आता, वह नायक अथवा राजा कैसा ? अतएव अपने बन्धुओं तथा अपनी भार्या का मोह त्याग कर स्वगृह को लौट जायें, इसी में आपकी कुशल है।' मर्मस्थल बेधनेवाली कुमार की गर्वोक्ति सुन कर श्रीकृष्ण का क्रोध दावानल-सा भड़क उठा। उन्होंने बाणों की अविरल वर्षा से प्रद्युम्न की समस्त मायावी सेना छिन्न-भिन्न कर दी। साथ ही कुमार के छत्र एवं रथ भी नष्ट हो गये, किन्तु वह तत्काल एक अन्य रथ पर आरूढ़ हो गया। तब उसने भी पिता के रथ एवं सारथी को नष्ट कर दिया। सत्य है, माया के बल से सब कुछ सम्भव है। नारायण श्रीकृष्ण ने देखा कि यह दुर्जेय शत्रु तो इस तरह से पराजित नहीं हो सकता है। इसलिये उन्होंने अपनी उत्कृष्ट विद्या का स्मरण कर अग्नि-बाण का प्रयोग किया, जिससे स्वयं प्रलयकाल की अग्नि प्रगट होकर प्रद्युम्न की सेना को भस्म करने लगी। उसकी Jun Gun Aaradhak Trust 158

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