________________ दिया-'२ असुराधम ! क्यों व्यर्थ में प्रलाप कर रहा है। यदि तुम में बल हो तो मुझ से युद्ध कर। ज्ञात हो / महाशाकिौन अधिक बली? देव ने क्रोधित हो भार पर प्रहार किया। कुमार ने भी वीरतापूर्वक 206 / P.P.Ad Gunun MS करते रहे। अन्त में भुजङ्ग देव ने पराजय स्वीकार कर ली। कुमार के चरणों में गिर कर वह कहने लगा'हे नाथ ! मैं आप का सेवक हूँ। आप मेरे स्वामी हैं। अतएव कृपा कर मेरा अपराध क्षमा करें।' कुमार के सौजन्य से प्रसन्न हो कर उसने उन्हें एक सुवर्णमय रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान किया। उस पर आसीन हो कर कुमार ने देव से पूछा-'तुम कौन हो? इस गोपुर में किस उद्देश्य से निवास करते हो ?' देव ने मस्तक नत कर कहा- 'मैं सत्यासत्य निवेदन कर रहा हूँ कि यहाँ मैं आप के समागम हेतु ही निवास कर रहा था। यह रहस्य इस प्रकार है इसी विजशार्द्ध पर्वत-श्रेणी में अलङ्कार नाम का नगर है, वहाँ कनकनाभि नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी अनिला बड़ी पतिव्रता थी। उनके यहाँ एक गुणवान पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम हिरण्यनाभि रखा गया। कनकनाभि ने दीर्घकाल तक राज्य-सुख भोगा, किन्तु कालान्तर में चञ्चला लक्ष्मी एवं क्षणभंगुर जीवन से उन्हें विरक्ति हो गयी। अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप कर उन्होंने वन में पिहिताश्रव मुनिराज से दिगम्बरी दीक्षा ले ली। कनकनामि ने गुरु के समीप द्वादशांग का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उग्र तपश्चरण द्वारा समस्त घातिया-कर्मों का विनाश कर वह केवलज्ञानी हो गये। राजा हिरण्यनामि निष्कंटक राज्य कर रहा था। उसके राज्य में न तो किसी शत्रु का भय था एवं न कोई अनिष्ट की आशङ्का थी। एक दिन वह अपने महल की छत पर बैठा हुआ था। तब उसने असीम विभूति एवं विशाल सेना से सम्पत्र दैत्येन्द्र के राज्य को देखा। इतनी प्रभूत सम्पदा अवलोक कर हिरण्यनाभि ने विचार किया कि इस सम्पदा की तुलना में मेरी राज्य सम्पदा तो नगण्य है / अतएव धिक्कार है मेरे जीवन एवं मेरो विभूति को ! अब मुझे ऐसा साधन करना चाहिय, जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हा सके। ऐसा दृढ़ सङ्कल्प कर उसने राज्य का भार अपने अनुज को सौंप दिया एवं स्वयं विद्या-साधनार्थ वन में जाकर तपस्या करने को उद्यत हुआ। उसने गुरु द्वारा प्राप्त विद्याओं का यथेष्ट साधन किया। अन्त में रोहिणी एवं अन्य विद्याभों का साधन कर स्वदेश लौटा। यहाँ / 206