________________ PP Ac Cunrahasun MS, ही सुख-दुःख मिलते हैं। इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाता हूँ, उसे ध्यान दे कर सुनो- ... जम्बूद्वीप के सुविख्यात भरतक्षेत्र में मगध नाम का सम्पन्न एवं उत्तम देश है / वहाँ के लक्ष्मी नामक एक ग्राम में सोमशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह शास्त्रज्ञ एवं ब्रह्म विचारक था। उसकी भार्या कमला थो, जिसके गर्भ से लक्ष्मीवती नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। जब लक्ष्मीवती यौवन विभूषित हुई, तो उसका असीम सौन्दर्य प्रकट हो पड़ा। वह शेष संसार को तृणवत हेय समझने लगी। संयोग से एक दिन एक मासोपवासी मुनिराज उसके गृह पर आहार हेतु पधारे / यद्यपि वे अवधिज्ञानी, कामजीत तथा रत्नत्रय-विभूषित थे, किन्तु उनका सर्वाङ्ग धूल से मलीन हो रहा था। लक्ष्मीवती अपने सुन्दर रूप को दर्पण में निहार रही थी, पीछे से आगन्तुक मुनि की छाया दर्पण में दिखलाई पड़ी। अपने प्रतिबिम्ब के निकट ही मुनि की छाया देख कर उसे बड़ा अभिमान हुआ। उसने विचार किया कि कहाँ मेरा मनोज्ञ रूप एवं कहाँ मुनि का यह निन्दनीय स्वरूप। उसने मुनि के स्वरूप की निन्दा कर घोर पाप अर्जित किया। इस पापोदय से वह कुष्ठ रोग से पीड़ित हुई। फलस्वरूप उसे असहनीय कष्ट होने लगा। एक दिन वह अपने दुःखों को सहन न कर अग्नि में कूद पड़ी तथा आर्तध्यान से मृत्यु प्राप्त कर पापोदय से गर्दभी (गधी) हुई। इसके पश्चात् अगले भव में वह गृह शकरी (पालतू सुअरी) हुई। कोटपाल के प्रहार से वह प्राण त्याग कर कुतिया हुई। शीतकाल में एक दिन वह तृण (घास) में बैठी थी कि उसमें अचानक अग्नि संयोग हो गया तथा वह कुतिया मृत्यु को प्राप्त हुई। इसके पश्चात् पापोदय से उसने निगम नामक नगर में किसी धीवर की पुत्री के रूप में जन्म लिया। किन्त उसकी देह निन्द्य तथा दुर्गन्ध युक्त हुई। इसलिये कुटुम्बवालों ने उसे घर से निकाल दिया। परिवार द्वारा निर्वासित वह धीवरी गङ्गा तट पर कुटिया बना कर रहने लगी। उसके उदर-पोषण का एकमात्र साधन था-डोंगी से यात्रियों को पार उतारना। इस कार्य से उसे कुछ धन प्राप्त हो जाता था। वह अपने अर्जित द्रव्य में से काल भाग अपने परिवार में भी भेज दिया करती थी। इस प्रकार अपने तीव्र पाप का फल भोगती हुई वह जीवनयापन करती रही। उसका नाम दुर्गन्धा पड़ गया था। एक दिन वही मुनिराज गङ्गा-तट पर पधारे, जिनकी उसने पूर्व में निन्दा की थी। माघ का ( महीना) था, इसलिये भीषण शीत का प्रकोप था। योगिराज को देख कर धीवरी ने विचार किया कि ऐसे में योगीन्द्र गङ्गा-तट पर केसे ठहरेंगे ? उसने मुनिराज के समीप जा Jun Gun Aaradak Trust 121