________________ चाहिये। धर्म से समस्त सुख अनायास प्राप्त हो जाते हैं, धर्म से परोपकार की प्रवृत्ति बढ़ती है, धर्म गुरु का गुरु होता है। उससे स्वर्ग-मोक्षादिक मनोवांछित सुख प्राप्त होते हैं। धर्म से सदा स्वच्छ निर्मल कीर्ति फैलती है। सत्पुरुष सदा जैन-धर्म की उपासना में लीन रहते हैं, अतः पाठक भी मुनिजनों की तरह जैन-धर्म की अर्चना-उपासना में प्रवृत्त हों। 47 षष्ठ सर्ग विश्व की गति विचित्र है। कहीं सुख है, तो कहीं दुःख का साम्राज्य / इधर कालसंवर के राजमहल में प्रद्युम्नकुमार अपनी बाल-सुलभ चपलता से (पालक ) माता-पिता को देवोपम आनन्द प्रदान कर रहा था एवं उधर द्वारिका में पुत्र वियोग में रुक्मिणी की जो अवस्था थी, उसे सुन कर आप का हृदय द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता। ___ रात्रि में जब रुक्मिणो की निद्रा मङ्ग हुई, तो उसने देखा कि शिशु का पता नहीं है। वह घबड़ा कर इधरउधर देखने लगी। उसने सेवकों से पूछना भारम्भ किया कि शीघ्र बतलाओ मेरा सर्वगुण-सम्पन्न प्राणप्रिय पुत्र कहाँ है ? वह विचार करने लगी-'यह देवकृत माया है अथवा कोई इन्द्रजाल का प्रहसन ? मैं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ ? मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है या कोई दुष्ट दैत्य उसे हर कर ले गया ? सम्भवतः उससे पूर्वजन्म का कोई बैर हो। किसी दास-दासी के अङ्क में क्रीड़ा भी सम्भव है। सम्भव है कोई सेवक उसे खिलाने के लिए ले गया हो।' ऐसे अनेक प्रकार के सङ्कल्प-विकल्प रुक्मिणी के चित्त में हिलोरें देने लगे। फलस्वरूप भ्रमित होकर वह कोई निर्णय न कर सकी। वह अपने जीवन को निस्सार समझ कर पछाड़ खा कर भूमि पर गिर पड़ी। किन्तु तत्काल ही सेवकों ने चन्दनादिक शीतलोपचार से उसे सचेत किया। सचेत होते ही उसका विलाप अत्यधिक तीव्र हो गया। रुक्मिणी का विलाप सुन कर उसके सेवक भी रुदन करने लगे। वह कहने लगी-'हाय! मेरा चन्द्रमुखी पुत्र कहाँ चला गया? धुंघराले केश, तीक्ष्ण नासिका एवं सुन्दर आकृतिवाला मेरालाल तू कहाँ मया ? तू कामदेव सदृश मनोज्ञ था, शङ्ख-ध्वनि के सदृश मनोहर तेरा कण्ठस्वर था। तू कहाँ लोप हो गया?' इस प्रकार हाहाकार मचाती हुई रुक्मिणी विलाप करती रही। उसके संग शोकामिभूत होकर शेष रनिवास भी करुण क्रन्दन करने लगा। यह दुःखदायी समाचार सुन कर नगर-|| Jun Gun Aaradhak Trust