Book Title: Prabandha Chintamani
Author(s): Merutungacharya, Jinvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 19
________________ पठता लषीः ॥ छ । उनमो विना [य] काय ॥” लिपिकार कोई अजैन पठता नामक मालूम देता है। लिपि जैननागरी है और अक्षर सुवाच्य तथा सुन्दर है । पाठ भी प्रायः शुद्ध है। (२) B अहमदाबादके उसी उपाश्रयकी दूसरी अपूर्ण प्रति । [डिब्बा नं. ५१, प्रति नं. ३५] इसका निर्देश हमने B अक्षरसे किया है। यह प्रति थोडी सी अपूर्ण है । इसके कुल ७१ पत्र हैं । अन्तके दो-एक पत्र नष्ट हो गये हैं, जिससे प्रस्तुत आवृत्तिके पृष्ठ १२१ की ५ वीं पंक्तिके पश्चात्से लेकर अन्ततकका ग्रंथभाग इसमें अनुपलब्ध है। इस प्रतिका यह अन्तभाग प्रायः तीन सौ वर्ष पहले ही नष्ट हो गया मालूम देता है । क्यों कि इसके विद्यमान अन्तके पन्न (७१) की अन्तिम पंक्तिके नीचे यह पद्य लिखा हुआ है संविमेनान्तिषदा तपगणपतिविजयसेनसूरीणाम् । श्रीरामविजयकृतिना चित्कोशे प्रतिरियं मुक्ता ॥ ___ इस पद्यका अर्थ यह है कि-तपागण (तपागच्छ ) पति आचार्य विजयसेनसूरिके संविग्न शिष्य श्रीरामविजयने यह प्रति ज्ञानकोश (ग्रन्थभण्डार) में रक्खी । तपागच्छीय पट्टावलियोंके अनुसार विजयसेनसूरिका स्वर्गवास विक्रम संवत् १६७१ में हुआ, अतः उनके शिष्य रामविजय प्रायः उसी समयमें विद्यमान होने चाहिये यह स्वतः सिद्ध है। अन्तिम पत्र अनुपलब्ध होनेसे इस प्रतिके लिखे जानेके समयके बारेमें कोई निश्चित विचार नहीं किया जा सकता; तो भी प्रतिकी स्थिति देखते हुए मालूम होता है कि यह प्रति भी करीब ५०० वर्ष जितनी पुरानी जरूर होगी। इस प्रतिका पाठ यद्यपि अशुद्धिबहुल है; तो भी कहीं कहीं इसका लेख बहुत शुद्ध और उपयुक्त मिल जाता है । इस प्रतिका किसीने पीछेसे कहीं कहीं संशोधन भी किया है और कई जगह पत्रोंके पार्श्वभागमें कुछ श्लोकादि भी लिख दिये हैं। (३) P पाटणके सागरगच्छके उपाश्रयमें संरक्षित ग्रन्थभण्डारकी संपूर्ण प्रति । पत्र संख्या ८४ । प्रथम पत्र और अन्तिम पत्रका एक-एक पार्श्व बिल्कुल कोरा । इस प्रतिका नामनिर्देश हमने P अक्षरसे किया है। अन्तमें लेखकादिका सूचन करनेवाला कोई उल्लेख नहीं है । पत्रादिकी अवस्था देखते हुए कमसेकम ३-४ सौ वर्षकी पुरानी तो यह होगी ही। लेकिन, जिस आदर्श परसे यह प्रति नकल की गई है वह आदर्श बहुत पुरातन मालूम देता है । सम्भवतः ताडपत्रमय हो । क्यों कि इस प्रतिमें बहुतसी जगह विनष्टीभूत शब्दांश या पंक्त्यंश सूचित करनेके लिये इस प्रकारकी अक्षरशून्य रेखायें रख दी गई हैं जिनका तात्पर्य यह है कि जिस आदर्श परसे यह नकल की गई है उसमें ये शब्द जीर्ण-शीर्णादिके कारण नष्ट-भ्रष्ट होगये होने चाहिए । इस प्रतिके पाठभेदादिके संबंधमें आगे पर लिखा गया है। (४) Po पूना, भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मंदिरमें सुरक्षित, राजकीय ग्रंथसंग्रह-जो पहले डेक्कन कॉलेजमें रक्षित होनेसे, डेक्कनकॉलेज-संग्रह कहलाता था-की वह प्रति जिसका जिक्र ऊपर पीटर्सन साहबके उल्लेखके साथ हुआ है । इसका संग्रह नंबर ६१७, सन् १८८५-८६ है । पत्र संख्या ८१ । इसके अन्तमें कोई लेखकादिका नाम नहीं है । प्रति बहुत पुरातन नहीं मालूम देती । अनुमानतः २००-२५० वर्ष जितनी पुरातन होगी । इसका सूचन हमने Po अक्षरसे किया है। (५) D शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथने सं० १९४४ में, बम्बईसे इस ग्रंथका जो संस्करण प्रकट किया उसको हमने D संज्ञासे निर्दिष्ट किया है। ___Da. Db. De. Dd. रामचन्द्र शास्त्रीने अपने संस्करणमें मुख्यतया ऊपर नं. ४ में उल्लिखित पूनावाली प्रतिका ही उपयोग किया है। लेकिन कुछ और भी त्रुटित और खंडित ऐसी दो-तीन प्रतियां उनको मिलीं थीं जिन परसे उन्होंने कुछ पाठभेद संग्रह करनेका अव्यवस्थित उद्योग किया था और इन प्रतियोंकी उन्होंने A. B. C. D आदि संज्ञायें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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