Book Title: Mukhvastrika Siddhi
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 14
________________ [13]] 00000000000000000 000000000000000000000000000000000 0000 ऐसे परमोपयोगी धर्मोपकरण की आवश्यकता को मानना, और दूसरों से मनवाना जिनाज्ञा का आराधक होना है। किन्तु अपनी मति शिथिलता या कष्ट भीरुता अथवा हठाग्रहता से इसे नहीं मानना, निस्सन्देह जिनाज्ञा की विराधना एवं दया की अवहेलना करना है, और विशेषतया 'विपरीत' नामक मिथ्यात्व का सेवन करना है। जो मुखवस्त्रिका जैनियों के लिये-हिन्दुओं की शिखा एवं ब्राह्मणों की जनेऊ की तरह चिह्न और प्रधान धर्मोपकरण है, इसके प्रचुर प्रचार में प्रमाण रूप यह निबन्ध लिखकर सैलाना निवासी सुश्रावक श्री रतनलालजी डोशी ने जैन समाज का बहुत बड़ा उपकार किया है। डोशीजी की गवेषणा, धारणा, विषयों की क्रमबद्ध योजना और भाषा सम्बन्धी सरलता आदि सभी सराहने लायक हैं। यह बात सत्य है कि वर्तमान काल, पारस्परिक विरोध परिहार व प्रेम-प्रचार की अपेक्षा रखता है, किन्तु दिनों-दिन स्वयं शिथिल होते हुए धार्मिक विधानों में उत्तेजना की भी आवश्यकता उससे कम नहीं है। महदाश्चर्य है कि इसी छल से कितने ही विघ्न-सन्तोषी लोग अपनी विषम प्रकृति के कारण शान्त समाज पर अकारण अनुचित आक्षेप कर अशान्त वातावरण उत्पन्न कर देते हैं। अभी थोड़े ही समय पूर्व अपना हठवाद दूसरों पर लादने में मस्त ऐसे मरुधर केशरी कहे जाने वाले ज्ञानसुन्दजी ने "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" नामक कल्पित पोथा लिखकर प्रकाशित किया है, उसमें एक प्रकरण मुखवस्त्रिका विषयक कुतर्क युक्त और अनर्थमय लिखकर सत्प्रवृत्ति पर कुठाराघात किया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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