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मुखवस्त्रिका सिद्धि
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अतएव भिक्षाचरी को जाते समय भी मुखवस्त्रिका लिंग परिचय एवं जीवों की यत्ना के लिए अवश्य बन्धी हुई होनी चाहिए।
(२) अब ध्यान-कायोत्सर्ग के प्रसंग पर विचार करते हैं। जिस समय कायोत्सर्ग होता है, उस समय ये लोग अपने दोनों हाथों को दोनों जंघाओं पर खुल्ले फैला देते हैं, कायोत्सर्ग में शरीर भी स्थिर रखना पड़ता है। ऐसे समय यदि किसी अन्यमतावलम्बी की इन पर दृष्टि पड़ जाय तो इन्हें कोई जैन साधु नहीं जान सकता। दूसरा कायोत्सर्ग पालते समय भी असावधानी से अयत्ना हो जाना सम्भव है।
(३) शयन के समय निद्रा लेते समय मुखवस्त्रिका मुंह पर नहीं बाँधने वाले से किस प्रकार यत्ला हो सकती होगी? श्वासोच्छ्वास के सिवाय खाँसने आदि की भी प्रवृत्ति अकस्मात् हो जाती है और मुखवस्त्रिका उस समय या तो सिरहाने या अन्य कहीं विराजमान रहती है। तब ऐसे समय तो अयत्ना अवश्य ही होती है। इसलिए इस समय भी मुखवस्त्रिका अवश्य मुँह पर बंधी रहनी चाहिए।
(४) प्रतिक्रमण करते समय भी मुखवस्त्रिका मुख पर रहनी आवश्यक है। क्योंकि जब वन्दना नमस्कार किया जाता है, तब और शक्रस्तव करते समय दोनों हाथ घुटने पर जोड़े हुए रख कर मस्तक झुकाकर पाठ उच्चारण किया जाता है, एवं खमासमणा देते हुए आवर्त करते समय मुख से पाठ उच्चारण और हाथों में आवर्तन किया जाता है, उस समय हाथ में रही हुई मुखवस्त्रिका यत्ना के कार्य में अनुपयोगी सिद्ध होती है और अयत्ना हो ही जाती है। ऐसे समय में यदि मुखवस्त्रिका मुँह पर बंधी हुई हो तो यत्ना अच्छी तरह से हो सकती है, अन्यथा नहीं।
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