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शंका-समाधान
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देवें, यह कैसे हो सकता है? और जो उपयोगवन्त होने का दम भरते हैं उनकी हालत तो जरा तपासो, जिससे मालूम हो जाय कि ये कितने अंशों में सत्य हैं।
पाठको! आप इतना तो निश्चय समझें कि हाथ में वस्त्र रखने वाले, मुँह पर बाँधने वालों के समान यतना नहीं रखते, और वे अधिकांश खुले मुँह ही बोलते हैं। इस लेखक ने स्वयं इनके बड़े बड़े आचार्यों को देखा है कि जो हाथ में वस्त्र होते हुए भी खुले मुँह बातों के सपाटे मारते थे। कितने ही ऐसे महाशय (साधु) भी देखे गये हैं कि जो जहाँ बैठे बैठे या खड़े खड़े बातें कर रहे थे, उनके हाथ में मुखवस्त्रिका नहीं थी, अपितु उनसे कुछ दूर रक्खी हुई थी ★ हमारे प्रेमी पाठक एवं निष्पक्ष मूर्ति-पूजक बन्धु भी इन बातों को भली प्रकार जानते होंगे।
अब हम विशेष नहीं लिख कर केवल एक बने हुए प्रसंग का प्रमाण देकर इस विषय को पूर्ण करते हैं।
___ "मुम्बई समाचार" दैनिक मंगलवार, ता० ८ अगस्त सन् १९३४ के पृष्ठ १५ में “जैन समाज सावधान' शीर्षक लेख से श्री विजयनीतिसूरिजी के प्रशिष्य पं० कल्याणविजयजी लिखते हैं:
★ सम्वत् १९६६ के श्रावण की बात है जब यह लेखक अपने चार स्वधर्मी बन्धुओं के साथ रेलवे में जोन टिकिट से अजमेर गया था तब स्वयं ज्ञानसुन्दरजी भी वहीं थे। जब हम ज्ञानसुन्दरजी के पास गये तो वे सोये हुए थे। हमें देख कर उठे और मुखवस्त्रिका की इधर उधर खोज की, नहीं मिलने पर ओढने की चद्दर का पल्ला मुँह पर लगा कर बात करने लगे। यह है सुन्दरजी की उपयोग रखने की तत्परता। - ले० आवृत्ति २ के लिये।
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