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मुखवस्त्रिका सिद्धि
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___ महानुभाव! अगर कुछ देर के लिए "तुष्यतु दुर्जनः' इस न्याय के अनुसार आपकी यह दलील मान भी ली जाय, तो यह तो आप ही पर लागू होती है। क्योंकि आपकी समाज के बहुत से (खरतर गच्छादि के) मुनि व्याख्यान के समय में नाक और मुँह पर वस्त्र बांधते हैं और घण्टों तक जोर जोर से बोलते हैं। इससे उनकी वह मुखवस्त्रिका अधिक गीली हो ही जाती है। क्योंकि वे तो मुँह से चिपकाकर बाँधते हैं और आपके इस नूतन सिद्धान्त के अनुसार उसमें जीवोत्पत्ति भी होती ही होगी? इससे तो वे साधु असंख्य सम्मूर्छिम जीवों के घातक होते ही होंगे? क्योंकि यह तो आप लोगों का ही अभिमत सिद्धान्त है।
हम तो मानते हैं कि वास्तव में सिद्धान्त के अनुसार मुँह पर लगी हुई मुँहपत्ति में यूँक से सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती ही नहीं है, यह तो केवल हमारे इन बन्धुओं की निष्फल चेष्टा ही है।
(१६) शंका - श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने अपनी पुस्तक में एक जगह लिखा है कि - जब स्थानकवासियों से पूछा जाता है कि तुम मुखवस्त्रिका क्यों बाँधते हो, तब वे कहते हैं कि हम से उपयोग नहीं रहता इसलिये, तो क्या यह बात सत्य है?
समाधान - श्री ज्ञानसुन्दरजी की बातों में सच्चाई का तो कहना ही क्या है? इन्हें तो किसी तरह अपना अभीष्ट साधना है चाहें वह उचित हो, या अनुचित?
जब कि मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने के विषय में साधुमार्गियों के पास काफी प्रमाण हैं, तब वे केवल ऐसी लचर दलील ही उत्तर में
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