Book Title: Mukhvastrika Siddhi
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003678/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि लेखक रतनलाल डोशी, सैलाना प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर @: (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ ९०००००००००० estiona International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का १०८ वां रत्न मुखवस्त्रिका सिद्धि लेखक रतनलाल डोशी, सैलाना प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा - नेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राज.) २: (०१४६२) २५१२१६, २५७६९६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोटः सभी प्रसंगों का न्याय क्षेत्र ब्यावर ही होगा । द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर २. शाखा- अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर ३. महाराष्ट्र शाखा - माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेड़कर पुतले के बाजू में, मनमाड़ (नासिक) २५२५१ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० २२१७, बम्बई- २ ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन ६७ बालाजी पेठ, जलगांव ६. श्री एच. आर. डोशी जी - ३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र. ) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, २३३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई मूल्य : ३-०० प्रथम आवृत्ति ५००० ५३५७७५ वीर संवत् २५२८ विक्रम संवत् २०५८ नवम्बर २००२ मुद्रक - स्वस्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | . जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर प्रभु ने अपने विमल एवं निर्मल केवल ज्ञान के द्वारा न केवल चलते-फिरते दिखाई देने वालों जीवों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया, अपितु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवों का सद्भाव जानकर उनकी रक्षा का उपदेश फरमाया तथा अपने उत्तराधिकारी सर्व विरति साधु समाज के लिए इन पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप जीवों की भी वैसी ही पूर्ण रूपेण रक्षा करने का निर्देश दिया, जैसे हलते-चलते त्रस जीवों की रक्षा को। मात्र चलने-फिरने वाले जीवों की रक्षा करने से जैन साधु अहिंसा महाव्रत का पालक नहीं कहा जा सकता, जब तक वह अव्यक्त वेदना वाले पृथ्वी, पानी, तेऊ, वायु और वनस्पति काय जीवों की पूर्ण रूप से रक्षा (दया) नहीं करता है। पांच स्थावर काय मे चार तो (पृथ्वी, पानी, तेऊ एवं वनस्पति) चक्षु. ग्राह्य है। अतएव उनकी रक्षा तो संभव है, पर वायुकाय चक्षु ग्राह्य नहीं है, उन वायुकाय जीवों की पूर्ण रूपेण रक्षा प्रभु महावीर के उत्तराधिकारी सर्व विरति साधक द्वारा कैसे हो? इसके लिए प्रभु ने उनके लिए मुखवस्त्रिका को चौबीस ही घण्टे मुख पर बांधे रखने का विधान किया है, ताकि उनके द्वारा वायुकायिक जीवों की पूर्ण रक्षा हो सके। साधु समाज जो छह काय जीवों के रक्षक प्रतिपालक कहें जाते हैं, वे यदि मुख पर मुखवस्त्रिका बराबर बांधे नहीं रखते हैं तो उनके द्वारा पायुकायिक जीवों की रक्षा संभव नहीं। जहाँ वायुकायिक जीवों की रक्षा नहीं होती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 ********00000000****************......................... हो, तो वहाँ अहिंसा महाव्रत का पालन कदापि संभव नहीं हो सकता। यानी मुख पर मुखवस्त्रिका हमेशा बांधे रखने पर ही जैन साधु अहिंसा महाव्रत का पूर्ण पालक कहा जा सकता है । गणधर भगवन्तों ने जैन साधु समाज के लिए जिन धर्मोपकरणों की परिगणना की उनमें "मुखवस्त्रिका " सबसे अधिक उपयोगी एवं आवश्यक उपकरण बतलाया है। यहाँ तक की सर्वोत्कृष्ट आराधना करने वाले अचेलक, जिनकल्पी मुनि जो वस्त्र तक नहीं रखते हैं, उनके लिए भी मुख पर मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण रखना अनिवार्य बतलाया गया है। यह तो सर्व विरति जैन साधु समाज की बात हुई। पर जो श्रमण नहीं, किन्तु उनका उपासक यानी श्रमणोपासक है, उनके लिए भी धार्मिक साधना आराधना करते वक्त मुख पर मुखवस्त्रिका रखना आवश्यक है। भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक ५ में साधु संतों के दर्शन करने के लिए जाने वालें श्रमणों पासकों के लिए पांच अभिगम (नियम) का पालन करने का प्रभु ने फरमाया है । उनमें तीसरा अभिगम मुंह पर उत्तरासंग लगाकर संत सतियों के दर्शन करने का है। क्योंकि भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशक २ में खुले मुंह बोलने पर शक्रेन्द्र की भाषा को प्रभु ने सावधकारी कहा है । इसीलिए श्रमणोपासकों के लिए संत-सतियों के दर्शन एवं वार्ता करते वक्त मुंह पर उत्तरासंग अथवा मुखवस्त्रिका रखने का विधान है, खुले मुंह उनसे वार्तालाप करने का निषेध किया है। जब श्रमणोपासक के लिए भी साधु साध्वी से खुले मुंह वार्तालाप का निषेध है, तो फिर जैन साधु-साध्वी को तो खुले मुंह रहना, बोलना, कल्प ही कैसे सकता है? यह तो एक सामान्य बुद्धि वाला बालक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भी समझ सकता है। जो जैन साधु साध्वी खुले मुंह रहते हैं, खुले मुंह बोलते हैं अथवा खुले मुंह बोलने की प्ररूपणा करते हैं, वे सावध भाषा बोलने वाले एवं इसके प्ररूपक होने से आगम आज्ञा (भगवती सूत्र श० १६ उद्देशक २) के विराधक है। . जैन साधु साध्वी के लिए मुंह पर हमेशा मुखवस्त्रिका बांधे रखने का आगम में जो विधान किया है, इसके पीछे मुख्य दो कारण है। प्रथम वायुकायिक जीवों की रक्षा। दूसरा साधुत्व का चिह्न। मुंह पर मुखवस्त्रिका बंधी देख कर सहज ही अन्यतीर्थिक समझ जाते हैं कि यह जैन साधु साध्वी है। अन्य तीर्थिक ग्रन्थ शिवपुराण अध्ययन ११ श्लोक २५ में जैन साधु की पहिचान के लिए निम्न श्लोक है। हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः। मलिनान्येव वासांसि, धारयन्तोऽल्पभाषिणः इस श्लोक के दूसरे चरण में “तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः" यह शब्द स्पष्ट बतला रहा है कि मुंह पर वस्त्र यानी मुखवस्त्रिका धारण करने वाले जैन साधु होते हैं, हाथ में रखने वाले नहीं। क्योंकि हाथ में रूमाल आदि रक्खा जाता है, मुंखस्त्रिका नहीं। आगम एवं प्राचीन परम्परा तो जैन साधु-साध्वी के लिए मुंह पर मुखवस्त्रिका हमेशा बांधे रखने की है। क्योंकि मुखवस्त्रिका शब्द अपने आप में ही ऐसा है जो अपना अर्थ स्वयं प्रकाशित करता है अर्थात् जो वस्त्र मुख पर बांधा जाता है, वह मुखवस्त्रिका कहलाता है। किन्तु भला हो शिथिलाचार का जिसने धीरे-धीरे इसमें भी करिश्मा दिखलाया। पहले जैन समाज के सभी साधु-मुनिराज खानपानादि प्रसंगों के अलावा इसे सदैव मुख पर बांधे रखते थे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इसके पश्चात् अमुक-अमुक समय पर (स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, वाचना, पृच्छा, परावर्तना, व्याख्यान, पठन-पाठन आदि) बांधना स्वीकार कर कुछ समय के लिए हाथ में रखना शुरू किया। फिर ज्यों ज्यों शिथिलता बढ़ती गई त्यों-त्यों मुखवस्त्रिका का स्थान मुंह से हटने लगा। चलते-चलते स्थिति यहाँ तक पहुंची कि मूर्तिपूजक समाज के साधु वर्ग में विक्रमीय बीसवीं सदी के प्रारंभ में व्याख्यान प्रसंग पर ही मुखवस्त्रिका मुंह पर रखकर बाकी सब समय के लिए वह नीचे उतर गई। अब तो इस समाज का वर्ग विशेष मुखवस्त्रिका को मुख पर बांधना ही पाप समझने लगा है। इतना ही नहीं यह वर्ग मुखवस्त्रिका बांधने वालों की घोर निंदा भी करने लग गया हैं। ऐसे विषम समय में मुखवस्त्रिका मुख पर बांधना आगम प्रमाणित करना, अति आवश्यक है। इस संदर्भ में आदरणीय रतनलाल जी सा. डोशी, सैलाना (म. प्र.) निवासी द्वारा लिखित "मुखवस्त्रिका सिद्धि" अत्यन्त उपयोगी है। इसमें आप श्री ने विक्रम संवत् १९६१ में नाभाशहर (पंजाब) की राज्य सभा में स्थानकवासी सम्प्रदाय के गणिवर्य श्री उदयचन्दजी म. सा. का श्री वल्लभविजय जी (मूर्तिपूजक) साधु के साथ मुखवस्त्रिका पर हुए शास्त्रार्थ एवं उसमें गणिवर पूज्य श्री उदयचन्दजी म. सा. की जीत का उल्लेख किया। साथ ही स्थानकवासी सम्प्रदाय से निष्कासित श्री ज्ञान सुन्दर जी जो बाद में मूर्तिपूजक समाज में साधु बने उनके द्वारा मुखवस्त्रिका बाबत उठाये गए मुद्दों का आगम सम्मत समाधान, प्राचीन मूर्तिपूजक संत एवं आचार्यों के द्वारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मुखवस्त्रिका के समर्थन में विभिन्न ग्रन्र्थों में उनके द्वारा दिए गए उद्धरण के साथ "मुखवस्त्रिका" जैन साधु समाज को हमेशा मुख पर बांधना क्यों आवश्यक है इन सबका सप्रमाण समाधान आपने इस पुस्तक में दिया है। अतएव प्रत्येक स्थानकवासी को इसका अध्ययन करना आवश्यक है। ___ इस पुस्तक के पूर्व में दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, प्रथम संस्करण विक्रम संवत् १९६४ एवं दूसरा संस्करण विक्रम संवत् १९६८। यानी दूसरे संस्करण को प्रकाशित हुए लगभग ६० वर्ष हो चुके हैं। इतने लम्बे अंतराल के बाद पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा है। सुज्ञ वर्ग इस पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ कर सही वस्तु स्थिति को समझने का कष्ट करें। इस पुस्तक के साथ तीन अन्य पुस्तकें (लोकाशाह मत समर्थन जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा, विद्युत् (बिजली) सचित्त तेऊकाय है) प्रकाशन के बारे में धर्म प्रिय उदारमना श्रावक रत्न श्रीमान् वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर निवासी के सामने चर्चा की तो आपको अत्यधिक प्रसन्नता हुई। आपने चारों पुस्तकों के प्रकाशन का सम्पूर्ण खर्च अपनी ओर से देने की भावना व्यक्त की। मैंने आपसे निवदन किया कि फ्री पुस्तकें देने में पुस्तक की उपयोगिता समाप्त हो जाती है तथा उसका दुरुपयोग होता है। अतएव इन चारों पुस्तकों का दृढ़धर्मी प्रियधर्मी उदारमना श्रावक रत्न श्रीमान् वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर के अर्थ सहयोग से अर्द्ध मूल्य में प्रकाशन किया जा रहा है। आदरणीय डागा साहब की उदारता के लिए समाज पूर्ण रूपेण परिचित है। आप संघ की प्रवृत्तियों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] के लिए हमेशा उदारता से सहयोग प्रदान करने में तत्पर रहते हैं । साहित्य प्रकाशन में सहयोग प्रदान करने में आपकी भावना उत्कृष्ट रहती है। संघ एवं पाठक गण आपके इस सहयोग के लिए बहुतबहुत आभारी है। आप चिरायु रहे और संघ और समाज को आपका सहयोग प्राप्त होता रहे। पुस्तक का प्रकाशन किसी का खण्डन करने की भावना से नहीं किया है। बल्कि सुज्ञ वर्ग को हकीकत की जानकारी हो, वे जिनेश्वर प्रभु के विशुद्ध मार्ग को समझें तथा तदनुसार प्रवृत्ति कर आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ कर मोक्ष के शाश्वत सुखों को प्राप्त करे । बावजूद इस प्रकाशन से किसी भी महानुभाव के हृदय को यदि कोई ठेस पहुँचे तो उसके लिए मैं हृदय से क्षमा चाहता हूँ । सैद्धान्तिक मान्यता के अलावा मेरा किसी व्यक्ति विशेष के प्रति कोई वैर विरोध नहीं है। मित्ती मे सव्वभूए सु, वेरं मज्झं ण केणइ ॥ यह दुर्लभ पुस्तक बड़े ही लम्बे अन्तराल के पश्चात् पुनः प्रकाशित की जा रही है। अतएव पाठक बंधुओं से निवेदन है कि वे इसे धरोहर के रूप में अपने पास रखें और समय-समय पर इसका वाचन कर अपनी श्रद्धा को दृढ़ करे । इसी शुभ भावना के साथ ! ब्यावर (राज.) दिनांक १-११-२००२ संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सु. जैन सं. र. संघ, जोधपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रकाशक के दो शब्द श्री साधुमार्गी जैन समाज में श्रीयुत रतनलाल जी डोशी सैलाना वाले अच्छे लेखक एवं साहित्य सर्जक हैं। आपकी सचोट एवं निर्भीक लेखनी से सम्पादित यह 'मुख-बस्त्रिका-सिद्धि' नामक पुस्तक समाज को अतीव उपयोगी एवं लाभप्रद ज्ञात होने से प्रथम संस्करण की पुस्तकें स्वल्प समय में ही बिक चुकीं और पंजाब आदि प्रान्तों से इसकी जोरदार मांग होने के कारण इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण संशोधन एवं परिवर्द्धन के साथ प्रकाशित किया जा रहा है। इसमें भाषा संयम पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। ___ इसके प्रथम संस्करण के प्रकाशन में द्रव्य सहायता श्री जुगराजजी रतनलाल जी, बरेली वालो ने दी थी इस कारण इस पुस्तक को अर्द्ध मूल्य-डेढ आने में ही वितरण की थी। परन्तु इस समय यूरोपीय महायुद्ध के कारण कागजादि छपाई के साधनों की महंगाई के कारण बहुत महंगी पड़तीहै। परन्तु प्रयक्ष करने पर भीनासर निवासी श्रीमान् सेठ बहादुरमल जी तोलाराम जी बांठिया ने छपाई का अर्द्ध व्यय अपनी तरफ से देना स्वीकार किया है। इस कारण श्रीमान् सेठ साहब की इस उदारता की प्रशंसा करते हुए इस द्वितीय संस्करण को भी अर्द्ध मूल्य में ही देना ठहराया है और जनता से अनुरोध है कि वह इस पुस्तक का अधिकाधिक प्रचार करके लाभ उठावें। भवदीय रतलाम बालचन्द श्रीश्रीमाल ता० १५-६-४१ सैक्रेटरी-श्री सा. जैन पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी म. की सं. का हितेच्छु श्रावक मण्डल, रतलाम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] 00000000.......................00000000000000000000000000 समर्पण पूजनीय पूज्य महात्माओ! यह "मुख - वस्त्रिका - सिद्धि” नामक छोटा सा निबन्ध लिखा गया है, सो केवल आप महात्माओं की ज्ञान प्रसादी के आधार पर ही है। इस तुच्छ सेवक ने आप पूज्यवरों के विशाल ज्ञान भण्डारों से इस विषयक जो यत् किचित् ज्ञान पाया है, उसी के अनुसार उचित साधन जुटा कर यह पुष्प निष्पन्न किया गया है। आप महर्षियों ने शास्त्र सम्मत एवं सुविहितों - सुसाधुओं द्वारा आचरित "मुख - वस्त्रिका " को सहर्ष धारण कर रखी है। यद्यपि विरोधियों द्वारा आप महानुभावों पर असहनीय एवं नीच शब्दों द्वारा कई बार आक्रमण हुए हैं और हो रहे हैं। तथापि आप अपने विरोधियों की हरकतों पर ध्यान नहीं देते हुए निज ध्येय पर अडिग रह कर जैन शासन की उन्नति एवं सुविहित पद्धति का प्रचार कर रहे हैं । अतएव यह छोटा-सा निबन्ध सहर्ष आप श्री के चरणों में समर्पित करता हूँ । चरणानुचर - "रत्न" द्वितीयावृत्ति की विशेषता तीन वर्ष के बाद "मुख- वस्त्रिका - सिद्धि" नूतन रूप (द्वितीयावृत्ति) में प्रिय पाठकों की सेवा में उपस्थित हो रही है। एक तो गुजराती प्रेस, दूसरा प्रूफ शुद्धि का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सकने के कारण प्रथमावृत्ति में अशुद्धियाँ बहुत रह गई थी, किन्तु दूसरी आवृत्ति में यह खामी बहुत दूर हो गई है। इसके सिवाय अन्तिम प्रकरण एवं परिशिष्ट नम्बर २ इस आवृत्ति की खास विशेषता है। आशा है कि सुज्ञ पाठक इससे समुचित लाभ उठावेंगे। सैलाना विनीतरतनलाल डोशी आषाढ़ शुक्ला द विक्रम संवत् १६६८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 धन्यवाद मान्यवर जुगराजजी रतनलाल जी साहब नाहर! आपने इस पुस्त के प्रथम संस्करण के प्रकाशन में द्रव्य सहायता प्रदान कर जो समाज सेवा की है, वह वास्तव में प्राप्त सम्पत्ति का सदुपयोग ही है। आये दिन धार्मिक प्रवृत्ति पर विरोधी लोग आक्रमण कर, भद्र जनता को भ्रम में डालकर श्रद्धा भ्रष्ट करने का प्रयत्न करते रहते हैं। किन्तु आप महानुभाव ने सत् प्रवृत्ति एवं सम्यक्त्व का रक्षण कर भद्र जनता को सम्यक्त्व में स्थिर करने रूप इस निबन्ध के प्रकाशन में अर्थ सहायता प्रदान कर "स्थिरीकरण” नामक शास्त्र सम्मत षष्टम दर्शनाचार का पालन किया है और साथ में स्वसमाज रक्षण रूप महान् कार्य भी किया है। . यद्यपि आपकी भावना इस पुस्तक को अमूल्य वितरण करने की थी, किन्तु अमूल्य वितरण में पुस्तकों का दुरुपयोग भी बहुधा होता है, यह विचार कर ही अर्द्ध मूल्य रक्खा गया है, तथापि आपको ओर से तो यह पुस्तक अमूल्य ही थी, क्योंकि अर्द्ध मूल्य भी समाजोपयोगी कार्यों में ही व्यय होगा। उससे आपने अपना कोई सम्बन्ध ही नहीं रक्खा।। __ अतएव आपके इस समयोचित एवं उपयोगी दान के लिए आपको अनेकानेक धन्यवाद है। इस पुस्तक की द्वितीयावृत्ति के प्रकाशन में श्री जैन हितेच्छु श्रावक मण्डल के प्रयत्न से “भीनासर निवासी श्रीमान् सेठ बहादुरमल जी तोलाराम जी बांठिया' ने छपाई आदि का आधा खर्च अपनी तरफ से प्रदान किया है, एतदर्थ आपका भी मैं आभारी हूँ और कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। . विनीत- “रत्न" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका यह सर्व विदित है कि किसी भी कार्य में निमित्त उपादान आदि कई कारण होते हैं। तदनुसार धर्मरूप कार्य में सम्यक् ज्ञान सच्ची श्रद्धा के सिवाय कुछ आगमोक्त बाह्य कारण भी अनिवार्य है। दुनियाँ जानती है कि - जैन धर्म दया प्रधान धर्म है, दया की आराधना के लिये जैनागमों में गणधरों ने धर्मोपकरणों की परिगणना की है। इन उपकरणों में कई खासकर श्रमणों के लिये हैं और कुछ श्रावकों के लिये भी उपयोगी हैं। . इन आगमोक्त धर्मोपकरणों में "मुखवस्त्रिका" समस्त जैन जनता के लिये अत्यन्त आवश्यक एवं सर्वोपयोगी है। क्योंकि मुखवस्त्रिका के धारण करने से न केवल आगम आज्ञा की आराधना ही होती है, किन्तु पञ्च-भौतिक जीवों में वायुकायिक आदि जीवों की रक्षा भी अच्छी तरह होती है। शिष्ठता का पालन तथा उच्छिष्ट परिहार (यूँक उछलना) आदि कई अन्य दृष्ट फल भी मुखवस्त्रिका धारण करने से हैं। अतएव श्वेताम्बर जैन समाज के सभी प्राचीन आचार्यों ने साधु के उपकरणों में मुखवस्त्रिका की प्रधान उपयोगिता मान्य की है, यहाँ तक कि अचेलक जिनकल्पी मुनि जो कि वस्त्र तक नहीं रखते, उनके लिये भी मुखवस्त्रिका रखना अनिवार्य बतलाया गया है, और जिनकल्पी मुनि मुखवस्त्रिका रखते भी थे। इसी प्रकार जैन श्रावक वर्ग के लिये भी सामायिक आदि धर्म क्रिया में रजोहरण और मुखवस्त्रिका रखना अनिवार्य है। इन उपकरणों के होने से ही सामायिक पौषधादि क्रियाएँ पूर्ण शुद्धता पूर्वक होना कहा जाता है। या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13]] 00000000000000000 000000000000000000000000000000000 0000 ऐसे परमोपयोगी धर्मोपकरण की आवश्यकता को मानना, और दूसरों से मनवाना जिनाज्ञा का आराधक होना है। किन्तु अपनी मति शिथिलता या कष्ट भीरुता अथवा हठाग्रहता से इसे नहीं मानना, निस्सन्देह जिनाज्ञा की विराधना एवं दया की अवहेलना करना है, और विशेषतया 'विपरीत' नामक मिथ्यात्व का सेवन करना है। जो मुखवस्त्रिका जैनियों के लिये-हिन्दुओं की शिखा एवं ब्राह्मणों की जनेऊ की तरह चिह्न और प्रधान धर्मोपकरण है, इसके प्रचुर प्रचार में प्रमाण रूप यह निबन्ध लिखकर सैलाना निवासी सुश्रावक श्री रतनलालजी डोशी ने जैन समाज का बहुत बड़ा उपकार किया है। डोशीजी की गवेषणा, धारणा, विषयों की क्रमबद्ध योजना और भाषा सम्बन्धी सरलता आदि सभी सराहने लायक हैं। यह बात सत्य है कि वर्तमान काल, पारस्परिक विरोध परिहार व प्रेम-प्रचार की अपेक्षा रखता है, किन्तु दिनों-दिन स्वयं शिथिल होते हुए धार्मिक विधानों में उत्तेजना की भी आवश्यकता उससे कम नहीं है। महदाश्चर्य है कि इसी छल से कितने ही विघ्न-सन्तोषी लोग अपनी विषम प्रकृति के कारण शान्त समाज पर अकारण अनुचित आक्षेप कर अशान्त वातावरण उत्पन्न कर देते हैं। अभी थोड़े ही समय पूर्व अपना हठवाद दूसरों पर लादने में मस्त ऐसे मरुधर केशरी कहे जाने वाले ज्ञानसुन्दजी ने "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" नामक कल्पित पोथा लिखकर प्रकाशित किया है, उसमें एक प्रकरण मुखवस्त्रिका विषयक कुतर्क युक्त और अनर्थमय लिखकर सत्प्रवृत्ति पर कुठाराघात किया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हमें सन्तोष है कि दूरदर्शी श्रावक डोशीजी की संयत और सप्रमाण भाषा ने इस निबन्ध को सुन्दर बना दिया है। इस छोटे से निबन्ध के पूर्वार्द्ध में "नाभा-शास्त्रार्थ' पर एक दृष्टि डाल कर बाद में मुखवस्त्रिका का मुँह पर बाँधना अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है, और उत्तरार्द्ध में मरुधर केशरी के मुखवस्त्रिका विषयक कुतर्क रूप आक्रमणों का सप्रमाण प्रतिकार किया गया है, जो कि युक्तियों से परिमार्जित, परिमित तथा उचित है, इस प्रयास में डोशीजी का उचित परिश्रम पूर्ण सफल है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। इधर वर्षों से मुखवस्त्रिका के खण्डन मण्डन में कई निबन्ध निकल चुके हैं। संहारकर्ता से संरक्षणकर्ता को अधिक अवधान, उद्योग व परिश्रम करना पड़ता है। तदनुसार खण्डन कर्ता के संमुख सभी मण्डनकर्ता की सावधानी अधिक ही है, किन्तु इस निबन्ध के लेखक की सावधानी सब से बढ़कर अधिक सफलता वाली है। सवृत्ति रक्षा और उसका अधिकाधिक प्रचार मात्र ही इस निबन्ध लेखन का मुख्य और पवित्र उद्देश्य है। सुज्ञ पाठक यदि पठन पाठन और मनन कर सत्य को अपनावेंगे तो लेखक का श्रम सफल होगा और उत्साह बढ़ेगा। इत्यलं विस्तरेण। चैत्र कृष्ण शुक्रवार सम्वत् १९६४ विक्रमी श्रीसंघ का हितेच्छु "मुनि लक्ष्मीन्दु" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषय-सूची * क्र० विषय १. विनय २. मिथ्याभिमान महिमा ३. नाभा-शास्त्रार्थ पर एक दृष्टि ४. मुँहपत्ति रखने के कारण ५. वायुकायादि जीवों के रक्षणार्थ मुखवस्त्रिका की आवश्यकता ६. मुखवस्त्रिका जैन साधुओं का लिंग है ७. सप्रमाण सिद्धि उत्तरार्द्ध ८. मृगावती रानी और गौतमस्वामी ९. आचारांग के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १०. भगवती सूत्र के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन ११. आचारांग के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १२. अङ्ग चूलिया के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १३. दशवैकालिक के अर्थ का अनर्थ से की गई - कुतर्क का खण्डन १४. आवश्यक के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १५. आवश्यक के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 क्रं० विषय १६. दशवैकालिक के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १७. निशीथ के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १८. निशीथ के नाम से की गई कुतर्क का खण्डन १६. जयं भुजंतो भासतो २०. मिथ्या बकवाद का खण्डन २१. दिन भर मुखवस्त्रिका का बाँधना २२. मुँहपत्ति में डोरा डालना २३. मुखवस्त्रिका जैन लिंग है २४. मुखवस्त्रिका सहित चित्र २५. थूक से जीवोत्पत्ति की मिथ्या मान्यता है २६. उपयोग का बहाना २७. मुखवस्त्रिका का ऐतिहासिक स्थान २८. उत्तरासंग २६. चौफरसी अष्टफरसी की घात विषयक ३०. भावना शुद्धि का मिथ्या बहाना ३१. कुविकल्प ३२. पोट्टिला का दृष्टान्त ३३. उपसंहार ३४. परिशिष्ट १ - अभिप्राय व सम्मति पत्र ३५. परिशिष्ट २ - समाचार पत्रों से भिन्न २ उद्धरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only पृष्ठ ३६ ४० ४१ ४१ ४३ ४३ ४६ ५२ ५४ ५६ ५७ ६० ६१ ६४ ६५ ६७ ६६ ७० ७७ ८२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 'णमोत्थुणं समणस्स भगवओ वद्धमाणस्स" मुखवस्त्रिका सिद्धि विनय दयामय तेरा ही आधार । मङ्गल दायक सिद्धि विनायक, सब सुख जय जिनराज जगत हितकारी, भव दुःख भंजन हार ॥ १ ॥ सत्य धर्म पर जैनाभासक, करते कूट प्रहार । । के दातार । मिथ्या मान बड़ाई खातिर, तजते शुद्धाचार ॥ २ ॥ सु साधु की निन्दा करके, सेवे मायाचार । भ्रम में डाले भद्रिक जनको, कर मिथ्या प्रचार ॥ ३ ॥ खुले मुँह से वायुकाय का, करते नित्य संहार | नाम धराते जैनी साधु, कर में करपत्ति धार ॥ ४ ॥ मिथ्या मत रत उन जीवों का, हो सन्मार्ग संचार । यही कामना है 'डोशी' की, होवे सफल विचार ॥ ५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्याभिमान महिमा मिथ्याभिमान - महिमा - वास्तव में अभिमान कोई वस्तु नहीं है, न कोई देव दानव है, न इन्द्र, महेन्द्र, या अहमिन्द्र है, यदि है तो केवल आत्मा का एक दुर्गुण ही, यह मिथ्याभिमान जिस व्यक्ति के हृदय में निवास करता है, वह अधमता (अधमगति) की ओर ही अग्रसर होता जाता है । कहा भी है कि - "माणेण अहमा गई" ऐसा दुर्गुण का भण्डार, सद्गुण का शत्रु, सत्य संहारक, न्याय नाशक और कपट का कोष, यह मिथ्याभिमान जब मानव हृदय में प्रवेश करता है, तब उसको अपवित्र कर देता है, जिससे सत्य एवं न्याय को वहां से बिदा होना पड़ता है। इस मान महिपाल की दुराग्रह से गाढ़ मैत्री है। ये दोनों अभिन्न मित्र सदा साथ ही रहते हैं। जब तक उक्त दुर्गुण मानव हृदय में रहता है, तब तक, क्या मजाल जो सत्य और न्याय आंख उठा कर भी उधर देखले । ऐसे मिथ्याभिमान ग्रस्त व्यक्ति को कोई सज्जन पुरुष अगर हित शिक्षा देता है, तो वह भी उसको अरुचिकर ही होती है, और फल स्वरूप शिक्षादाता को भी कभी कभी अपमानित होना पड़ता है । क्योंकि ऐसे प्राणियों को तो अपने समान वृत्ति वाले की निज स्वभाव के अनुकूल बातें ही प्रिय लगती हैं और वह उन्हीं को सुनने की इच्छा करता है। ऐसे लोगों के लिये कुछ लिखकर समय एवं समाज के द्रव्य का व्यय करना लेखक अनुचित समझता है, परन्तु जो लोग सरल हृदय के हैं, जिन्हें सत्या - सत्य के विचार करने की इच्छा है, उनके लिए और मुख्यतः स्वसमाज रक्षणार्थ ही यह प्रयास किया जा रहा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २ ** - ******* Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्याभिमान महिमा ************************************** की, जिसके प्रत्युत्तर में उसी समय श्रीमान् कल्याणमलजी साबह बैद ने सम्वत् १९६२ के इस मन-घड़न्त फैसले की पॉलिसी का उद्घाटन करने वाले ट्रेक्ट “पीताम्बरी पराजय'' की पुनः आवृत्ति प्रकाशित कर फैलते हुए तिमिर को रोक दिया। तदुपरान्त इस पीताम्बरी पराजय नामक ट्रेक्ट के उत्तर में 'रत्न प्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, फलौदी (मारवाड़)' से “नाभा नरेश का असली फैसला' नामक एक चौदह पेजी ट्रेक्ट जो अजमेर से मुद्रित हुआ है, प्रकट किया गया। पर जब हम इस फलौदी के कहे जाने वाले असली फैसले पर विचार करते हैं तो-यह प्रमाणित होता है कि - "अजब रफ्तार बेढङ्गी जो पहिले थी, वो-अब भी है।" लेखक महाशय ने 'पीताम्बरी पराजय' का उत्तर नहीं देकर सिर्फ उल्लिखित नकली फैसले की पुनरावृत्ति की है और साथ में अपने पक्ष की विजय होने के सम्बन्ध में असत्य डींगें मार कर अपने मुँह मियां मिठू बने हैं । __ जब कि-नकली फैसले का उत्तर पहले पंजाब से व बाद में अजमेर से निकल चुका है, और वह उत्तर के लिए ज्यों का त्यों रक्खा हुआ है, जिसका कि वास्तविक उत्तर (जो उनके पास है ही नहीं) अभी तक (सिवाय नकली फैसले की पुनरावृत्ति के) नहीं मिला। ऐसी सूरत में इस विषय में अधिक प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं है। तथापि भद्रजनों की शङ्काओं का समाधान एवं वस्तुस्थिति की सत्यता को विशेष रूप से सिद्ध करने के लिए कुछ नकली फैसले पर विचार कर मुख-वस्त्रिका का मुख पर बाँधना सिद्ध कर दिखाते हैं। * इस विषय का उत्तर एक स्वतंत्र ट्रेक्ट (जय पराजय विषय) से देने का विचार है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ********** *************** ************* फलौदी वाले फैसले के पृष्ठ ३ पंक्ति १२ में लेखक महाशय बतलाते हैं कि - "व्यतीत सम्वत्सर के ज्येष्ठ शुक्ल ५ सं० १९६१ को जो शास्त्रार्थ मध्य में छोड़ा गया था, जिसका यह आशय था कि - ढूंढियों की ओर से सदा मुख-बन्धन की विधि का कोई प्रमाण मिले, सो आज दिन तक कोई उत्तर इनकी तरफ से प्रगट नहीं हुआ, अतः उनकी मूकता आपके शास्त्रार्थ के विजय की सूचिता है।" आदि २ मार पीट कर खड़े किये गये इस फैसले में हमारे बन्धु दो बातें बतलाते हैं। जैसे - (१) शास्त्रार्थ मध्य में छोड़ा गया। (२) कारण-मुखवस्त्रिका सदा मुख पर बांधने के विषय में साधु मार्गियों से उत्तर लेना। केवल ये दो बातें ही यहां संक्षेप में विचारी जाती हैं। जब कि स्वयं यह नकली फैसला ही बता रहा है कि - "तिस पीछे कई दिन तक हमारे सामने आपका और उदयचन्दजी का शास्त्रार्थ होता रहा।" ____ आश्चर्य इस बात का होता है कि - एक तरफ तो लिखते हैं कि शास्त्रार्थ कई दिन तक होता रहा और दूसरी तरफ लिखते हैं कि-"उनकी तरफ से कोई प्रमाण नहीं मिला तो क्या, इतने दिन तक केवल वल्लभविजयजी अकेले ही अपने आप शास्त्रार्थ करते रहे? यदि एक पक्ष के विरुद्ध दूसरा पक्ष कुछ भी प्रमाण नहीं दे, तो वह उसी समय पराजित हो सकता है, फिर इतने दिन लम्बाने की आवश्यकता ही क्या हो सकती है? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ******************** ****************** ___ महानुभावो! अगर वास्तव में वल्लभविजयजी विजयी थे, इनकी जीत ही हुई थी, तो इन्हें उदास होने का क्या कारण था? कहीं विजेता भी उदास होता है? क्या कभी किसी भाई ने किसी विजयी को उदास होते देखा या सुना है? नहीं। वास्तव में तो जो हारता है वही उदास होता है, और उसी की प्रसन्नता पलायन कर जाती है। श्री वल्लभविजयजी के इस पत्र से अनायास ही यह सिद्ध हो जाता है कि - शास्त्रार्थ के समय अवश्य इनकी हार हुई थी, जिससे इन पर उदासी छा गई थी और अब डेढ़ वर्ष के बाद इस जाली फैसले के प्राप्त होते ही, वह पलायन की हुई प्रसन्नता पुनः प्राप्त हुई। . पुनः देखिए - जब शास्त्रार्थ मध्य में ही छोड़ा गया था तो उस समय फैसला देने की आवश्यकता क्या थी? यद्यपि मूर्तिपूजक लोग उस समय फैसला देना और स्थानकवासियों का जीतना स्वीकार नहीं करते हैं, तथापि इनकी यह हठधर्मी अब चल नहीं सकती, क्योंकिउस समय के इनके समाचार पत्र ही इस बात को स्वीकार कर रहे हैं। अधिक नहीं केवल एक ही प्रमाण देखिए - जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर (जो मूर्तिपूजक की खास संस्था है) से प्रकाशित “जैन धर्म प्रकाश" मासिक पुस्तक २१ फागण सम्वत् १९६२ अंक १२ में - "नाभा स्टेटे बाहर पाडेलो फैसलो" शीर्षक से लिखा है कि - "सं० १९६१ ना जेठ मासमां पंजाब ताबे नाभा स्टेटना राजा साहेबे” “जे काम चलाऊ फैसलो आप्यो हतो" ते बाबतनो आखरी फैसलो हालमां तेओ साहेबे मुनिराज श्री वल्लभविजयजी उपर लखी मोकल्यो छे." Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्याभिमान महिमा ************************************** इस (वल्लभविजयजी की सम्प्रदाय के) समाचार पत्र के प्रमाण से यह सिद्ध होने में कोई कसर नहीं है, कि उस समय फैसला हो चुका था। और वह गणिराज की जय सूचक ही था। तभी तो उसे काम चलाऊ कहा जा रहा है। अतः तत्कालीन दिया हुआ फैसला जो गणिराज के पास है, वह सत्य है और यह नूतन फैसला जाली है। यह स्पष्ट सिद्ध है, इसमें कोई शंका नहीं। इसके सिवाय इन लोगों के पत्रकारों ने नाभा नरेश को भी इस विषय में अप शब्दों द्वारा संमानित किया था। यह प्रकट में इनकी पराजय सिद्ध करता है और यह ठीक भी है। क्योंकि - जो व्यक्ति किसी मामले में न्यायालय से विजय प्राप्त करता है वह उस न्यायाधीश की प्रशंसा करता है, और हारने वाला करता है निन्दा। पर इसके विरुद्ध विजय पाने वाले को निन्दा करते, व पराजित व्यक्ति को प्रशंसा करते तो आज तक नहीं देखा। फिर यह अनोखी बात कैसी, जो उस समय की, इनकी पत्रिकाओं से प्रमाणित होती है। अतः इनके कहे जाने वाले असली (वास्तव में नकली) फैसले की कल्पितता में कोई सन्देह नहीं है। जिस भाई को इस विषय में अधिक जानना है उन्हें चाहिए कि-पोष्ट खर्च के तीन पैसे के स्टॉम्प भेजकर “पीताम्बरी पराजय' नामक ट्रेक्ट श्रीयुत् कल्याणमलजी बैद, नया बाजार, अजमेर से मँगवा ले *। . . हमारे मूर्तिपूजक भाई कहते हैं कि - शिवपुराण के आधार पर यह फैसला हुआ है, और उसमें मुख-वस्त्रिका मुँह पर बांधना नहीं लिखा है। इस पर से शिवपुराण के प्रमाण को भी देखकर निर्णय करना आवश्यक है-देखें शिवपुराण इस विषय में क्या कहता है? * और इस बात को यथा तथ्य जानना हो तो दिल्ली से प्रकाशित 'नाभा शास्त्रार्थ' पढ़े। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** मुखवस्त्रिका सिद्धि हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वासांसि धारयन्तोऽल्पभाषिणः शिवपुराण ज्ञान संहिता अ. २१ श्लोक २५ इस श्लोक में बताया गया है कि हाथ में पात्र धारण किये हुए और मुँह पर वस्त्र धारण करने वाले, मलिन वस्त्रों को धारण किये हुए, थोड़े बोलने वाले जैन साधु होते हैं। यह इस श्लोक के दूसरे चरण में " तुंडे वस्त्रस्य धारकाः शब्द ही बता रहा है कि मुँह पर वस्त्र धारण करने वाले ही जैन साधु होते हैं, हाथ में रखने वाले नहीं । ऐसे स्पष्ट प्रमाण के होते हुए भी, क्या, मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने वाले कभी हार सकते हैं? कदापि नहीं। यहां स्पष्ट सिद्ध हो गया कि नाभा में गणिराज की - ह *** "" ही शानदार जीत हुई थी। और अपने प्रतिद्वंदी की इस जीत को सहन नहीं कर सकने एवं अपनी हार को छुपाने के लिए ही इस नूतन फैसले की सृष्टि हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं को करनी पड़ी थी । (२) मुँहपत्ति रखने के कारण प्रथम प्रकरण में हम यह दिखा चुके हैं कि - मुख- वस्त्रिका विषयक नाभा शास्त्रार्थ में मुख - वस्त्रिका मुँह पर बांधने वाले गणिवर्य ( साधुमार्गीय समाज) की विजय और हाथ में रखने वाले ( मूर्तिपूजक समाज) वल्लभविजयजी की पराजय हुई है। अब इस प्रकरण में हम दिगम्बर ?” नामक पुस्तक के पृष्ठ १६ पंक्ति ८ में भी छंपा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only यह श्लोक - श्री विद्याविजयजी द्वारा लिखित " श्वेताम्बर प्राचीन के Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मुंहपत्ति रखने के कारण ***** **** मुख-वस्त्रिका के मुँह पर बांधने के मुख्य कारण बताकर उनको सप्रमाण सिद्ध करते हैं । - मुखवस्त्रिका के मुख पर बांधने में मुख्यतः दो कारण हैं (१) वायुकायादि जीवों की रक्षा । (२) जैन साधुत्त्वदर्शक "लिंग” (चिन्ह) | इन दो कारणों की सिद्धि के लिए हम मूर्तिपूजक समाज के मान्य ग्रन्थों और लेखों के ही प्रमाण देते हैं । पाठक वर्ग धैर्य पूर्वक पढ़ कर निर्णय करें। (क) वायुकायादि जीवों के रक्षणार्थ मुख - वस्त्रिका की आवश्यकता कितने ही हाथ में मुख - वस्त्रिका रखने वाले हमारे बन्धु अब तक यह कहते आ रहे हैं कि - मुख की वायु से वायुकायिक जीवों की हिंसा नहीं होती, पर उनका यह कथन निम्न प्रमाणों से बाधित सिद्ध होता है, देखिये - - (१) हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र के भाषान्तर में लिखा है कि- " मुँहपत्ति पण उडीने मुखमां पड़तां जीवो तथा मुखना उष्ण श्वासथी बाहरना वायुकाय जीवोनी विराधना टालवा माटे छे, तेम मुखमा पडती धूलने पण अटकाववा माटे छे” ( भीमसिंह माणेक द्वारा प्रकाशित और निर्णयसागर प्रेस से मुद्रित वि० सं० १९५५ पृष्ठ २६० पं० २७ ) (२) जैन प्रवचन साप्ताहिक के प्रवचनकार श्रीराम विजयजी योग शास्त्र की बारह भावनाओं में से तीसरी संसार भावना के विवरण में वायुकाय की वेदना में लिखते हैं कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ११ ११ ********** **************************** "मुखादिवातैर्बाध्यन्ते" (अर्थ) मुख आदिना पवनथी पण वायना जीवो बाधा पामे छे. (जैन प्रवचन वर्ष ४ अङ्क ३५ पृष्ठ ४०७ कोलम २) (३) सागरानन्द सूरिजी “दीक्षानुं सुन्दर स्वरूप” में लिखते हैं कि - ___ 'वचननी प्रवृत्ति मां थती हिंसाने निवारवा मुंहपत्ति नी जरूर छे." (पृष्ठ ३१ पं०७) (४) पुनः सागरानन्द सूरिजी - मूर्तिपूजक प्रतिकार समिति द्वारा - अहमदाबाद से प्रकाशित “जैन सत्य प्रकाश' मासिक पत्रिका में “दिगम्बरों नी उत्पत्ति' नामक लेख-माला में प्रथम वर्ष के अङ्क ७ पृष्ठ २०१ के दूसरे कालम में लिखते हैं कि - ____ मुख-वस्त्रिकाना अभावे भाषानी सावधता - "वली जेओ मुख-वस्त्रिका जेवी आवश्यक उपधी भाषा समितिना वखते उपयोगी चीज माननारा नथी, तेओ वाउकाय रूपि एकेन्द्रियनुं रक्षण तेमज डांस मच्छर विगेरे उड़ता जीवो रूपि त्रसकायर्नु रक्षण केवी रीते करी शके? मुख-वस्त्रिका बिना बोलवाथी-वायु विराधना केम? ___"एम नहिं कहेवू के भाषा वर्गणाना पुद्गलो चउफरसी होवाथी आठ स्पर्श वाला वाउकाय विगेरेनी विराधना केम करी शके? केमके शब्द वर्गणाना पुद्गलो जे भाषा पणे परिणमे छे ते जेओ के चउस्पर्शी छे तो पण तेवी रीते परिणमवू नाभीथी उठीने कोष्ठमां हणाइने वर्णस्थानोमां फरशीने नीकलता पवन द्वाराए ज बने छे, अने ए वात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मुंहपत्ति रखने के कारण ************************************** बोलती वखत मोंढा आगल राखेला हाथ के वस्त्रना स्पर्श के चलनादिथी अनुभव सिद्ध छे, तो तेवी रीते भाषानी वखते नीकलतो वायु बाहर रहेला "सचित्त वाउकायनी विराधना करे तेमां शंकाने स्थान होइ शके नहीं" ए वात पण शास्त्र सिद्ध छे के शरीरमा रहेलो वायु बाहरना वायु ने शस्त्र रूप छे, शास्त्र ने मुख्यताए नहीं मानता शोधकपणानीज दृष्टिने मुख्यताए मानवावाला लोको पण शरीरथी नीकलता वायु ने झेरी हवा तरीके ज ओलखावे छे, जो की मुख आगल वस्त्र राखवाथी भाषानी साथे नीकलतो वायु शरीरमा पाछो प्रवेश करतो नथी, पण मुखमांथी नीकलता वायुना वेगने जरूर तोड़ी नाखे छे, अने ते वेग रहित थयेलो वायु बाहरना वायुने आघात करनार न थाय, के ओछो थाय, ते स्वभाव सिद्ध ज छे, अने तेथीज शास्त्रकारोए पण साधुओने फूंक देवानी मनाई करी. निरवद्य भाषानी प्रतिज्ञा वाला छतां-जो मुंहपत्ति ने न माने तो मिथ्यात्वी बने - “आ उपरथी समजाशे के मुंहपत्ति ने राख्या सिवाय बोलनारा भाषानुं निरवद्यपणुं राखनारा कहेवायज नहिं, तो पछी जेओ निरवद्य भाषाने माटे सूत्र सिद्ध वस्त्रनी जरुर छतां ते वस्त्रनीज जरुरीयात न माने तेओ पोताना आत्माने भाषा समितिथी चूकवे छे, एटलुंज नहिं पण सम्यक् श्रद्धान रूपी सम्यक्त्व थी पण चूकवे छे, अर्थात् उघाड़े मुखे बोलवा वालो भाषासमितिथी चूकेलो अने असंजममां पेठेलो गणाय।" (५) पुनः सागरानन्द सूरिजी इसी पत्रिका के ह वें अङ्क पृष्ठ २८१ प्रथम कॉलम पंक्ति २० में लिखते हैं, कि - . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** मुखवस्त्रिका सिद्धि १३ ***** "मोंढामांथी निकलेला पवनथी बहारना वायु कायनो नाश थाय. " इसी प्रकार इसी पृष्ठ के दूसरे कॉलम पंक्ति ७ से अपकाय की हिंसा भी बतलाते हैं, देखिये - मुंहपत्ति न राखवाथी अपकायनो नाश " वली लग लगाट वरसाद ज्यारे आवेछे त्यारे ऋण दिवसनी हेली पछीज बधां स्थान जलना जीवोथी वासित थई जाय, अने तेवी वखते मुंहपत्ति नहीं होवाथी उघाड़े मुखे बोलनारा मनुष्यो पोताने अहिंसक कहेवड़ावे तो पण असंख्यात अप् - कायना जीवोनो घात करनार ज थाय छे.' "" (६) 'जेनीझम' नामक ग्रंथ जर्मन विद्वान् हेल्मुट ग्लाजेनाप द्वारा लिखित के भाषान्तर (जैनधर्म) में पृष्ठ ३४६ पंक्ति २ से लिखा है कि - " वायुना जंतुनी हिंसा थाय नहिं, एटला माटे मोढे बांधवानी मुखपट्टी” (जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर से प्रकाशित) उक्त प्रमाणों पर से यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया कि - मुँह की वायु से बाहर के सचित्त वायुकाय के जीवों की विराधना होती है। अतः प्रथम कारण सिद्ध हो चुका, जो भाई (खास कर श्री ज्ञान सुन्दरजी) मुँह की वायु से वायुकाय की हिंसा नहीं मान कर उल्टी कुतर्के करते हैं, उन्हें इन प्रमाणों पर शांत चित्त से विचार करना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मुखवस्त्रिका जैन साधुओं का.... . ************************************** (ख) मुखवरित्रका जैन साधुओं का लिंग (चिन्ह) है गत प्रकरण में हम वायुकाय की हिंसा मुख की वायु द्वारा होती है, यह सिद्ध कर आये हैं। अब इस प्रकरण में-मुख-वस्त्रिका बाँधने के दूसरे कारण पर विचार करते हैं। संसार में जितने मत मतान्तर हैं, उनके साधुओं-प्रवर्तकों के खास कोई न कोई चिन्ह हुवा ही करता है, और ऐसे चिन्हों से वे संसार के अन्य मतों से अपनी भिन्नता जाहिर कर सकते हैं। कोई पीत वस्त्र धारण करता है तो कोई रक्त-एवं भगवां। कोई लम्बा तिलक करता है तो कोई आडा। कोई त्रिशूल रखता है तो कोई मयूर पंख। मतलब यह कि हर एक धर्म के प्रवर्तकों का कोई न कोई स्वतंत्र लिंग दर्शक चिन्ह होता ही है। इसी प्रकार जैन साधुत्त्व का परिचय देने वाला मुख्य लिंग, मुखवस्त्रिका है। अन्य धर्मावलम्बियों के चिन्ह सिवाय परिचय देने के किसी अन्य काम में प्रायः नहीं आते हैं, पर जैन शासन में साधुओं का यह चिन्ह (मुखवस्त्रिका) जीव रक्षा के उपयोग में भी आता है। और जैन लिंग का भी परिचय देता है। इसके लिए यहां किंचित् प्रमाण दिये जाते हैं - (१) सावचूरि यति दिन चर्या:बत्तीसंगुलदीहं रयहरणं, पुत्तियाय अद्धेणं। जीवाण रक्खणट्ठा "लिंगट्ठा" चेव एयंतु॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि १५ **** ********************************** प मापा तथैवेदं-रजो हरणं मुख-वस्त्रिका रूपं जीवानां रक्षणार्थ “लिङ्गार्थ' मपि। अर्थात् - ३२ अङ्गल लम्बा रज़ोहरण और उससे अर्द्ध (सोलह अङ्गल) मुख-वस्त्रिका ये जीवों की रक्षा के लिये और “लिंग' के लिए भी रक्खे जाते हैं। (२) साधु समाचारी और आवश्यक बृहद् वृत्ति आदि में मृतक साधु के मुंह पर मुख-वस्त्रिका बाँधने की विधि बताई है (जिसका उद्धरण आगे दिया जायगा) उसका तात्पर्य भी प्रकरण सम्मत है। इससे सिद्ध होता है कि मुख-वस्त्रिका जैन लिंग की द्योतक है। और यह अपना कार्य सुचारु रूप से तभी कर सकेगी जब कि यह मुँह पर बँधी होगी। क्योंकि हाथ में तो गृहस्थ लोग भी रुमाल आदि रखते ही हैं, इसलिए हाथ में रहने वाला वस्त्र मुख-वस्त्रिका के समान उपयोगी नहीं होता। एक कमरे में यदि संसार के भिन्न भिन्न सम्प्रदाय के पांचपांच साधु एकत्रित किये जायें, जिसमें पांच साधु हाथ में वस्त्र रखने वाले भी हों, और उस एकत्रित हुए साधु मण्डल में एक साधु मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने वाला (साधुमार्गी जैन) हो, वहां किसी अन्य सामाजिक मनुष्य को लाकर उस मंडली के सामने खड़ा कर पूछा जावे कि बताओ इनमें जैन साधु कौन है? तो वह व्यक्ति जल्दी से मुखवस्त्रिका वाले जैन मुनि की ओर ही अंगूली निर्देश करेगा, क्योंकि उनकी परिचय दात्री-मुखवस्त्रिका जीव रक्षा के साथ साथ जैन साधुत्त्व को स्पष्ट बता रही है। इसी से वह व्यक्ति शीघ्र जान लेता है कि यही जैन साधु है। ऐसे प्रश्न के उत्तर में तो हाथ में वस्त्र रखने वालों को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्रमाण सिद्धि देख लेने पर भी उनके जैन साधु होने का सहज में कोई भी अनुमान नहीं कर सकता । इससे यह सिद्ध है कि मुखवस्त्रिका जैन साधु का खास लिंग है, और वह मुँह पर रहने पर ही कार्यसाधक हो सकती है । मुँह के सिवाय इतर स्थानों पर उसका उपयोग करना दुरुपयोग ही है। १६ *** *** यहाँ हमने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दोनों कारणों को सिद्ध कर दिखाये हैं। अब हमारे प्रेमी पाठक अगले प्रकरण में मुखवस्त्रिका को मुँह पर बाँधने के सम्बन्ध में शास्त्रीय प्रमाणों का अवलोकन करें । (३) सप्रमाण सिद्धि गत प्रकरणों में मुख से निकलती हुई वायु से होने वाली वायुकायादि जीवों की हिंसा को रोकने में और जैन साधुपन का परिचय कराने में उपयोगी मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में विचार किया गया। अब हम पाठकों के सन्मुख मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने के विषय में कुछ प्रमाण पेश करने के पहले, मुखवस्त्रिका शब्द पर थोडासा विचार करके उसका अर्थ बतलाने का प्रयत्न करते हैं। 'मुखवस्त्रिका' यह शब्द ही ऐसा है जो अपना अर्थ स्वयं प्रकाशित कर रहा है। जैसे " शब्द सिद्धि - मुखेस्थिता - मुखस्थिता, मुखस्थिता चासौवस्त्रिका मुखवस्त्रिका" इति शब्दानु शासनम् - अर्थात् जो वस्त्रिका मुँह पर स्थित बाँधी हुई हो उसी को मुखवस्त्रिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ** कहते हैं। शाब्दिक अर्थ को देखते हुए तो अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती, फिर भी अपनी पूर्व की प्रतिज्ञा का पालन करने और भद्र जनों की शंकाओं का निराकरण करने के लिए, इस विषय में हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं के मान्य ग्रन्थों के ही प्रमाण दिये जाते हैं। १७ - (१) 'विशेषावश्यक भाषान्तर भाग २' आगमोदय समिति से सम्वत् १९८३ में प्रकाशित की प्रथमावृत्ति पृ० ३०५ पंक्ति १६ में भाष्य की २५७७ वीं गाथा के तीसरे चरण में “मुह पुत्तिया ' शब्द आया है उसका अर्थ भाषान्तरकार पृ० ३०६ पंक्ति ११ में करते हैं कि - "मुखे बाँधवाने मुख - वस्त्रिका राखवी " (२) मूर्तिपूजक विद्वान् कवि ऋषभदासजी ने "हितशिक्षानो रास" द्वितीयावृत्ति पृष्ठ ३८ पंक्ति १३ में लिखा है कि - "मुखे बांधि ते मुख पति" इन दो प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका कि - मुख - वस्त्रिका वही है जो मुँह पर बाँधी जाय । जब कि - मुख- वस्त्रिका शब्द का अर्थ मुँह पर बाँधने का वस्त्र विशेष सिद्ध हो गया, तब इस विषय में कुछ भी शंका नहीं रहने पाती। अतएव आचारांगादि अङ्गोपाङ्ग सूत्रों में अनेक स्थानों पर आये हुए मुख - वस्त्रिका शब्द का अर्थ भी उक्त प्रमाणों से मुँह पर बाँधने का वस्त्र सिद्ध हो चुका है। मुख - वस्त्रिका का मुँह पर बाँधना सूत्र सम्मत होते हुए भी अब हम अपने प्रकरण की विशेष सिद्धि के लिए कुछ प्रमाण मूर्तिपूजकों (हाथ में वस्त्र रखने वालों) के मान्य ग्रन्थों के देते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सप्रमाण सिद्धि ************** ***** *** **************** (१) कण्णेठ्ठियाए वा मुहणंतगेणं वा विणा-इरियं पडिक्कमे, मिच्छुकडं पुरिमटुं। . (महानिशीथ सूत्र अ० ७) ___ अर्थात्-कान में डाली हुई मुख-वस्त्रिका के बिना या सर्वथा मुख-वस्त्रिका के बिना इरियावही क्रिया करने पर साधु को मिथ्या दुष्कृत या पुरिमार्द्ध प्रायश्चित्त आता है। (२) देवसूरिजी समाचारी ग्रन्थ में लिखते हैं कि - "मुख-वस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखेबध्वा" . अर्थात् - "मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर मुँह पर बाँध कर" (३) भुवनभानु केवली के रास में रोहिणी के अधिकार वाली ६६ वीं ढाल में - "मुँहपतिए मुखबांधीनेरे" तुमे बेसो छो जेम, तिम मुखे उंचो देइनेरे, बीजे बेसाए केम ।। ३ ।। अर्थात् - रोहिणी कहती है कि - हे गुरुणिजी! जिस प्रकार मुख-वस्त्रिका मुख पर बाँधकर तुम बैठती हो, उस प्रकार मुख पर हुंचा देकर दूसरे से कैसे बैठा जाय? (४) हरीबल मच्छी रास के-खण्ड २ ढाल ६ में - साधुजन मुख मुँहपत्ति, बाँधी है जिन धर्म। (५) विचार रत्नाकर में - कण्ठे सार सरस्वती, हृदि कृपा नीति क्षमाशुद्धयो। "वक्त्राब्जे मुख-वस्त्रिका" सुभगता, काये करे पुस्तिका। ____अर्थात् - (गुरु के वर्णन में) उनके कंठ में सरस्वती विराजमान है, हृदय में दया, नीति, क्षमा और पवित्रता है "मुख पर मुखवस्त्रिका है" शरीर में सुभगता और हाथ में पुस्तक है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि १६ ************************************** (६) हित शिक्षानो रास पृष्ठ २०७ पंक्ति ह (श्रावकाधिकार) रजोहरणो "उज्झल मुंहपत्ति अलगी न करे ते मुंह पति" यहाँ मुख-वस्त्रिका को मुँह से दूर नहीं करे ऐसा कहा है। (७) सम्यक्त्व मूल बारह व्रतनी टीप पृष्ठ १२१ पंक्ति १६ 'जयणायुक्त थई “मुहपत्ति मुखे बाँधीने' पुस्तक उपर दृष्टि राखीने भणे तथा साँभले' ऐसा सामायिक व्रत के अधिकार में लिखा (८) 'जैनीझम' जिसके लेखक जर्मन विद्वान् प्रो० हेल्मुट ग्लाजेनाप हैं, उसका भाषान्तर गुजराती में नरसिंहभाई ईश्वरभाई पटेल ने किया है, और भावनगर की जैन धर्म प्रसारक सभा से प्रकाशित हुवा है, उस (जैन धर्म नाम की पुस्तक) के पृष्ठ ३६१ पंक्ति २८ पर लिखा है कि - त्यारे एमनी साथेना साधुओ तुरतज म्हों उपर मुखपट्टी बाँधी। श्वास बड़े कोई जीवनी हिंसा थाय नहिं एटला माटे जैन साधुओओ बाँधवानी होय छे। . () मूर्तिपूजक विजयानन्दसूरि (आत्मारामजी) ने अपने ही किसी मूर्तिपूजक साधु को-इन्हीं नाभा शास्त्रार्थ में पराजित वल्लभविजयजी के हाथ से एक पत्र लिखवाया है, जिसका फोटो "मुँहपत्ति चर्चासार" नामक पुस्तक जो पन्यास रत्नविजयजी गणि लिखित है, और विजय नीतिसूरि जैन लाईब्रेरी, अहमदाबाद से सम्वत् १९६० में (प्रथमावृत्ति) प्रकाशित हुई है, उसके पृष्ठ ८४ के आगे दिया गया है, और उसकी नकल भावनगर के मूर्तिपूजक पत्र "जैन' साप्ताहिक के पुस्तक ३३ अंक ३६ तारीख २२-६१९३५ मिती भादवा (मारवाड़ी आश्विन) वदी १० रविवार विक्रम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्रमाण सिद्धि *** सम्वत् १६६१ पृष्ठ ८६७ में छपी है, और इसके छपवाने वाले भी मूर्तिपूजक मुनि विजय हर्षसूरिजी है। उसकी फोटू से ली हुई यथा तथ्य नकल दी जाती है - श्री २० ** मुकाम सुरत बन्दर मुनि श्री आलमचन्दजी योग्य लि० आचार्य महाराज श्री श्री श्री १००८ श्री मद्विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी ) महाराज जी आदि साधु मण्डल ठाने ७ केतर्फ से वंदणाऽनुवंदना १००८ वार बाँचना चिट्ठी तुमारी आइ समंचार सर्व जाणे हैं यहाँ सर्व साधु सुखसाता में हैं तुमारी सुखसाता का समंचार लिखना मुहपत्ति विशे हमारा कहना इतनाहि है कि मुहपत्ति बंधनी अच्छी है और घणे दिनों से परम्परा चली आई है इनको लोपना यह अच्छा नहीं है हम बन्धनी अच्छी जाणते हैं परन्तु हम ढूंढीए लोक में से मुहपत्ति तोड़ के नीकले हैं इस वास्ते हम बन्ध नहीं सक्ते हैं और जो कदी बन्धनी इच्छीए तो यहां बड़ी निन्दा होती है और सत्य धर्म में आये हुए लोकों के मन में होलचली हो जावे इस वास्ते नहीं बन्ध सक्ते हैं सो जाणना अपरंच हमारी सलाह मानते हो तो तुमको मुहपत्ति बंधने में कुछ भी हानी नहीं है क्योंकि तुमारे गुरु बन्धते हैं और तुम नहीं बन्धो यह अच्छी बात नहीं है आगे जैसी तुमारी मरजी हमने तो हमारा अभिप्राय लिख दिया है सो जाणना - और हमको तो तुम बाँधोगे तो भी वैसे हो और नहीं बाँधो तो भी वैसे ही है पर तुमारे हित के वास्ते लिखा है आगे जैसी तुमारी मरजी - १९४७ कत्तक वदि० वार बुध दसखत - वल्लभविजय की वन्दना वाचनी दीवाली के रोज दस बजे चिट्ठी लिखी है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु-मरमर मुनिश्री धाम चंदनी बोलला महाराजा श्रीर्विजयानंदी (बारा) महाराज साधु मंडल गर्ने केत वारका चमी चिकीलाई समेत आते है. यहां साधुसुदनसा ना तुमारी सासाररवना मु से नही सिबंधनीयती है चौथो दिनच चाई है इनको लो पना यह हम धनी श्रीजात परंतुमईटीएला कमेडी कले है बंधनही सके और जो कही बंधन एसो यहां बडीनि होती है और सत्यधर्म में आये हुए लोको के नीली हो जाने इसने नही जानें तो तुम को मुहानपनेते कुछमी हानी नही है क्योंकी मारे गुरु है तुम ही बंभो यह श्रीमाल नहीं है मांगे जैसीतुमरीमर जी हम नेत्य हमारा भूमि प्रादा लिया है मोनाल स औरतो तो कैसा है और नही पनि लिख तुम वैसे जैसीमा क्वमादयका - 69 (1) धूप कुछ समय बाजीकरोदिति के શ્રીમદ્ આત્મારામજીએ મુત્તિ આંધવ સંબંધી સુરત બિરાજતા મુનિમહારાજ શ્રી આલમચન્દ્રજીને આપેલા તેમના પત્રના પ્રત્યુત્તર. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ( उपरोक्त पत्र में कई जगह शाब्दिक अशुद्धियां है, पर चिट्ठी की यथा तथ्य नकल देने के कारण हमने उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया है।) २१ *** (१०) साधुओं के प्राचीन चित्र जो मुंहपत्ति चर्चासार' में दिये हैं उनमें भी साधुओं के मुँह पर मुख - वस्त्रिका बन्धी हुई है। और प्राचीन कल्प सूत्र वारसा में भी इसी प्रकार के मुख वस्त्रिका मुख पर बांधे हुए चित्र हैं। इतने पुष्ट और सबल प्रमाणों के होते हुए भी हमारे मूर्त्तिपूजक बन्धु सत्य एवं न्याय मार्ग के अनुकरण करने वालों पर अनुचित हमले करते हैं, यह सरासर अन्याय है। मुखवस्त्रिका मुख पर बांधने के सम्बन्ध में मूर्त्तिपूजक आचार्य केवल इतना कह कर ही नहीं रुके हैं, किन्तु इससे भी आगे मृतक साधु (शव) के मुँह पर भी मुख - वस्त्रिका बाँधने का विधान बताते हैं, इस सम्बन्ध में भी बहुत से प्रमाणों में से केवल दो ही प्रमाण दिये जाते हैं । यथा - ( १ ) मयग कलेवरंहवित्ता कुंकुमाइहिं विलिंपित्ता य अवंगं चोलपट्टं परिहाविय, "पुत्तिं मुखे बंधीय " बीयं वत्थं हिट्ठा पत्थरिय, तइएणं उवरिं पाउणिय संथारे कडिए दोरिं वज्झइ । (साधु समाचारी) अर्थात् - मृतक शव को स्नान कराकर कुंकुम आदि से विलेपन करे और उल्टा चोलपट्टा पहिना के, "मुख - वस्त्रिका मुँह पर बाँधके" दूसरा वस्त्र नीचे बिछाकर और तीसरा वस्त्र संथारे पर ढांक कर कमर में डोरी बांधे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सप्रमाण सिद्धि ************************************** (२) तत्थय-जाहे चेव काल गतो ताहे चेव हत्थ पादा उज्जाधारिज्जन्ति। तुंडं चसे “मुंह पोतियाए वज्झई, जाणि संधाणाणि अंगुलि-अंतराणि तच्छइ इसिं फालिज्जाइ, पायगुडे सुहत्थंगुढेसु वज्झतीति। _अर्थात् - जिस समय साधु काल करे, उसी समय शीघ्र हाथ पैर सीधे पकड़ रक्खे, और उसका "मुँह मुँहपत्ति से बांधे" जितने अंगुली के बीच के सांधे (जोड़) हैं उनके 'चमड़े को चीरे," और पैर व हाथ के अंगूठे को बांधे। . (आवश्यक बृहद् वृत्ति (हरिभद्रीय) प्रतिक्रमणाध्ययन परिष्टापनिकाधिकार) इस प्रकार मुख-वस्त्रिका का मुंह पर बाँधना अनेक पुष्ट एवं प्रबल प्रमाणों से सिद्ध है, यहाँ तक कि मृतक साधु के भी मुखवस्त्रिका बाँधना प्रमाणित है, जो कि-सिवाय लिंग प्रदर्शन के वह अन्य किसी उपयोग में नहीं आती, तो फिर जीवित साधु अवश्य बांधे, इसमें तो शंका ही नहीं हो सकती। यद्यपि मुख-वस्त्रिका के मुँह पर बाँधने के ये प्रमाण इतने प्रबल और अकाट्य हैं कि जिन्हें देखकर सुज्ञ जनों को किसी भी प्रकार की शंका नहीं रह सकती। तथापि हमारे कितने ही भाई इस विषय की शंकाएं उठाकर भद्र जनता को भ्रम में डालने का प्रयत्न करते हैं। और श्री ज्ञानसुन्दरजी आदि ने किया भी है। अतएव आगे उतरार्द्ध में हम उन शङ्काओं का भी पृथक् २ समाधान करेंगे। पाठक धैर्य एवं शान्ति से पढ़ें। ... इन दोनों प्रमाणों का मतलब केवल मुख-वस्त्रिका से है, अन्य बातों से नहीं। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उत्तरार्द्ध" " शङ्का - समाधान" (१) जब किसी व्यक्ति का उसकी चरित्र हीनता के कारण समाज से तिरस्कार हो जाता है, तब वह व्यक्ति अपनी चरित्र - हीनता का उत्तरोत्तर पोषण करने के लिए (जो उस समाज में रह कर नहीं हो सकता) और उस समाज से अपने तिरस्कार का बदला लेने के लिए इतर समाज में मिल जाता है और उसमें रहकर अपना तिरस्कार करने वाली समाज को दिल खोलकर अच्छी तरह कोसता है । यदि उसमें शक्ति हो तो वह उस समाज को ही नष्ट करदे, ऐसी भावना रखता है । पाठक देखेंगे, कि आज एक हिन्दू किसी कारण से अपनी समाज से बहिष्कृत होकर मुस्लिम या ईसाई आदि समाज में जा घुसता है । तब वह हिन्दू समाज का ऐसा कट्टर दुश्मन हो जाता है कि जितने वे असली हिन्दू विरोधी भी नहीं होंगे । इसका मुख्य कारण अपने अपमान का बदला ही है, नतु अन्यः । ठीक इसी दूषित प्रवृत्ति को श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी पकड़ रक्खी है। आपके आचरणों की ख्याति से ही शुद्ध जैन समाज से आपको विदाई मिल गई । पुनः प्रविष्ठ होने की कोशिश करने पर भी कृतज्ञता (!) के वश मूल साधुमार्गी समाज में आप प्रविष्ठ नहीं हो सके। विज्ञ समाज में भी आपका आदर न होकर अनादर तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 66. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ** ************************************ तिरस्कार ही हुवा। तब आपने येन केन प्रकारेण इस समाज से अपने निरादर एवं अपमान का बदला लेने की ठान ली। बस जा घुसे मूर्तिपूजक समाज में और वहाँ रह कर अपने ज्ञान एवं आश्रयदाता को लगे पेट भर कोसने। स्वामीजी ने वहाँ रह कर भी अपना चरित्र किस प्रकार कलङ्कित किया है, इस विषयक वर्णन एक स्वतंत्र ट्रेक्ट द्वारा किया जा सकता है, परन्तु यहां तो केवल इतना ही कहना है कि श्री ज्ञानसुन्दरजी ने मुख-वस्त्रिका विषयक जो जो कुतर्के उठाई हैं वे सब निरर्थक होकर, इनकी चित्तवृत्ति को स्फुट कर रही है। सुन्दरजी ने बाल-ब्रह्मचारी, शास्त्रोद्धारक स्वर्गीय पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज को अपने पोथे में प्रायः प्रत्येक स्थान पर 'अमोलखर्षिजी' लिखकर न जाने किस वैर का बदला चुकाया है। आपने साधुमार्गीय समाज को कितने हल्के शब्दों से सम्बोधन किया है! यह तो पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं। इसलिये हमें विषयान्तर नहीं करते हुए ज्ञानसुन्दरजी के मुख-वस्त्रिका विषयक फैलाए हुए भ्रम जाल का ही छेदन करना है। अतएव निम्न लिखित शङ्का समाधान रूप में पाठकों की सेवा में रखते हैं। पाठक धैर्यपूर्वक अवलोकन एवं मनन करें। (१) शंका - मृगावती रानी ने गौतमस्वामी को कहा कि - आप मुख-वस्त्रिका मुख पर बाँधकर ही मेरे पुत्र को देखने चलें, ऐसा विपाक सूत्र के मूल पाठ में कहा है, इससे सिद्ध होता है कि-उस वक्त गौतमस्वामी के मुख पर मुख-वस्त्रिका बन्धी हुई नहीं थी, किन्तु हाथ ही में थी। इससे मुख-वस्त्रिका हाथ में रखना कैसे प्रमाणित नहीं हो सकता? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि २५ **************** ********************** समाधान - इस शंका का समाधान, इस विषय के पूर्वापर सम्बन्ध को देकर किया जाता है। विपाक सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन में लिखा है कि मृगा रानी का मृगा नामक पुत्र जन्मान्ध था, बहरा था, गूंगा था, पंगू था एवं उसके शरीर में कुष्टादि कई प्रकार के रोग थे। शरीर से रक्त, पीप, बहता रहता था और उससे असहनीय दुर्गन्ध निकलती थी। वह खाये हुए आहार को वमन द्वारा बाहर निकाल कर पुनः खा जाता था, ऐसे घृणित कार्य से व खास कर उसकी दुर्गन्ध से बचने के लिये ही उसे भूमि घर में रक्खा था। उसकी माता जब उसके लिये आहार ले जाती थी, उस समय वह दुर्गन्ध से बचने के लिये नाक व मुँह को वस्त्र से बाँध लेती थी और उसे दूर ही से आहार देकर पुनः शीघ्र लौट आती थी। श्री वीर प्रभु से इस जन्म दुःखी आत्मा का हाल जानकर श्री गौतमस्वामी उसे देखने के लिए मृगावती रानी के समीप आते हैं, और अपनी (देखने की) इच्छा प्रदर्शित करते हैं। तब मृगावती रानी आहार का समय हो जाने से उसके लिए आहार लेकर साथ में श्री गौतमस्वामी को भी ले चलती है। भूमि-गृह के द्वार पर जाकर वह स्वयं वस्त्र से अपना मुँह बाँध लेती है, तथा श्री गौतमस्वामी से भी कहती है, कि-भगवन्! आप भी मुख-वस्त्रिका से मुँह बाँध लीजिये। यह प्रकरण का सार है, इसी पर हमारे मूर्तिपूजक भाई हाथ में मुख-वस्त्रिका रखना सिद्ध करते हैं। परन्तु जरा सद् बुद्धि से विचार करें तो उन्हें मालूम होगा कि - उस दुर्गन्धमय स्थान में जाते समय मुँह बाँधने को कहने का मतलब-ऐसा प्रयत्न करने का था कि - जिससे वह दुर्गन्ध शरीर में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ***** प्रवेश नहीं कर सके। वैसे तो मुख - वस्त्रिका के रहते हुए भी बाहर की वायु शरीर के अन्दर प्रवेश कर सकती है, और बिना किसी विशेष रुकावट के आती रहती है । पर दुर्गन्ध से बचने के लिए किसी खास प्रयत्न की आवश्यकता रहती है। २६ ** यद्यपि श्री गौतमस्वामी के मुँह पर मुख - वस्त्रिका थी, तथापि उस दुर्गन्ध से व दुर्गन्ध के कीटाणुओं के शरीर में प्रवेश करने से रक्षा नहीं हो सकती थी । इसीलिये तो रानी ने वस्त्र से अपना मुँह बाँध कर, श्री गौतमस्वामी से भी ऐसा करने का निवेदन किया था । इसका यही आशय था कि-मुंहपत्ति नाक व मुँह से चिपकाकर बांधी जाय, जिससे बाहर की अशुद्ध वायु आसानी से शरीर में प्रवेश नहीं कर सके । यदि यहाँ कोई यह तर्क करे - कि मृगा रानी ने जो मुँह बाँधा था, वहाँ तो वस्त्र ही लिखा है, पर गौतमस्वामी के लिए मुखवस्त्रिका क्यों कही ? यहाँ भी दूसरा वस्त्र विशेष ही कहना चाहिए था? तो इसका समाधान यह है कि जैन मुनि अपने पास आवश्यक और अनिवार्य वस्तुएँ ही रखते हैं। आवश्यकता से अधिक एक चिंधी भी नहीं रखते हैं, यह सर्व साधारण जानते हैं, और रानी भी यह बात जानती थी, कि इनके पास कोई फालतु वस्त्र नहीं है, इसीलिए उसने मुख- वस्त्रिका से ही दुर्गन्ध से बचने के लिए मुँह व नासिका को बाँध लेने के उद्देश्य से ऐसा कहा । यहाँ प्रकरण के विरुद्ध होने पर भी प्रसंगोपात एक बात कही जाती है जो खास ध्यान देने योग्य है । वह यह कि आज जिस प्रकार मूर्त्तिपूजक साधु अकारण ही कम्बल को कन्धे पर डाले फिरते देखे जाते हैं, यह पद्धति उस समय नहीं थी । यदि होती तो रानी अवश्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि २७ ***************** ******* ************** दुर्गन्ध से बचाव करने के लिए उसका उपयोग करने को कहती! क्योंकि कारण तो सिर्फ दुर्गन्ध से रक्षा करने का ही था, न कि बोलने या धर्मोपदेश देने का इससे यह पाया जाता है कि इनकी यह सदैव कम्बल कन्धे पर डाल कर फिरने की पद्धति नूतन ही है। और यह भी किसी एक के साथ विशेष घटना (चोरी आदि) हो जाने से ही प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है। अब पुनः मूल प्रकरण पर आते हैं। ___ इस पर भी यदि कोई शंका करे कि सूत्र में तो मुँह बाँधने का ही कहा है, नासिका का तो कहा ही नहीं, फिर आप नासिका बाँधना कैसे कहते हो? तो इसके लिए यही समाधान है कि यह प्रकरण ही बिना किसी रुकावट के दुर्गन्ध से रक्षा करने के उद्देश्य को बता रहा है। और दुर्गन्ध से बचने के लिए मुख्यतः नासिका ही को ढकना पड़ता है, तब ही शरीर के अन्दर प्रवेश करने वाली दुर्गन्धमय वायु और उसके कीटाणुओं के रास्ते में रुकावट होती है। और गन्ध जो है वो नासिका ही से आती है, इसके लिये तो दो मत हो ही नहीं सकते क्योंकि यह शास्त्र व अनुभव सिद्ध बात है। पञ्च इन्द्रिय के २३ विषय में नासिका के दो विषय सुगन्ध व दुर्गन्ध हैं। ये विषय मुख के तो हैं ही नहीं। न्याय भी कहता है कि - "घ्राण ग्राह्यो गुणो गन्धः" अर्थात् गन्ध घ्राणेन्द्रिय से ग्रहण करने लायक गुण है। प्रत्यक्ष में भी इत्र, पुष्पादि नासिका ही से सूंघे जाते हैं, सुगन्ध और दुर्गन्ध की पहिचान भी नासिका ही से होती है। स्वयं हाथ में वस्त्रिका रखने वाले साधु भी तो सूंघनी नासिका ही से सूंघते हैं। फिर इसमें विचार की बात ही क्या है? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान इसलिए सरल बुद्धि से यह निश्चय समझिये कि मृगावती रानी के कहने का मुख्य तात्पर्य केवल दुर्गन्ध रक्षार्थ नासिका बाँधने का था। पर व्यवहार में उसे मुँह बाँधना ही कहते हैं। देखिये - २८ ** - ** (अ) स्वयं मृगावती रानी के लिए भी वहाँ मुँह बाँधने ही का कहा है। पर वास्तव में उसने नासिका को भी बाँधा है। क्योंकि उसे दुर्गन्ध से रक्षा करनी अभीष्ट थी, न कि धर्म कार्य । (आ) ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र के ६ वें अध्ययन में लिखा है किउन माकंदिय पुत्रों ने असाधारण दुर्गन्ध से व्याकुल हो कर बचाव के हेतु मुँह ढक लिया। यहाँ भी मुँह ढकने ही कहा पर मुख्य सम्बन्ध नासिका से ही है । (इ) डॉक्टर लोग किसी भयंकर रोगी के शस्त्र क्रिया (ऑपरेशन) करते हैं तब वस्त्र से मुँह व नाक को बाँधते हैं, किन्तु उसे मुँह बाँधना ही कहते हैं। (ई) खरतरगच्छीय व कुछ और भी साधु व्याख्यान के समय नासिका से लेकर मुँह पर कपड़ा बाँधते हैं, पर उसे मुख - वस्त्रिका ही कहते हैं। यहाँ नाक को बाँधते हुए भी नाक नहीं कह कर मुख ही कहना सिद्ध हो गया । - ( उ ) मूर्ति पूजक गृहस्थ भी पूजा करते समय नाक व मुँह पर ढा बाँधते हैं, और उसे "मुखकोश" ही कहते हैं । इत्यादि पर से स्पष्ट सिद्ध होता है कि - व्यवहार में नाक को बाँधते हुए भी नाक बाँधना नहीं कह कर मुँह बाँधना ही कहते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि - एक तो 'मुख' प्रधान अंग है। दूसरा नासिका उसी पर (मुँह पर) है। तीसरा नासिका व मुँह के कोई विशेष अन्तर भी नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************* ******* ****************** इससे नासिका बाँधते समय मुँह भी बाँधा जाता है (पर मुँह बाँधते समय नासिका नहीं बाँधी जाती)। और इसी से सर्व साधारण का यह व्यावहारिक नियम है कि - जहाँ कहीं दुर्गन्ध की ओर से निकलने का काम पड़े तो उस दुर्गन्ध से बचने के लिए नासिका व मुँह दोनों पर कपड़ा लगा लेते हैं। हाँ, अगर नासिका, मुँह पर नहीं होकर किसी अन्य जगह पेट, हाथ या पैर पर होती, और वैसी हालत में मुँह भी बाँधते तब तो यह बात भी विचारणीय होती। पर वैसा तो स्वाभाविक नहीं है। . इस से यह अच्छी तरह प्रमाणित हो गया कि - मृगावती रानी ने जो श्री गौतमस्वामी को मुख-वस्त्रिका से मुँह बाँधने का कहा, वह केवल दुर्गन्ध से बचने के लिए नासिका ही को, और साथ साथ अति निकट एवं प्रधान अंग होने से, तथा कीटाणुओं से रक्षा करने के लिए मुँह बाँधने का कहा, इसका मुख्य कारण ऊपर बताए हुए मुहावरे के व्यावहारिक शब्द ही से कहा है, परन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि श्री गौतमस्वामी के मुँह पर मुख-वस्त्रिका नहीं थी। बँधी हुई तो अवश्य थी, क्योंकि वे जैन साधु के लिंग में थे, और जैन साधु के लिंग की सर्व प्रथम स्पष्ट एवं सरलता पूर्वक परिचय देने * ज्ञानसुन्दरजी ने भी दुर्गन्ध से बचाव होने का कारण माना है और विशेष में यह भी माना है कि "मुँहपत्ति को तिखुनी कर नाक व मुँह को आच्छादित कर लिया" जैसे कि रानी मृगा ने अपना मुँह बाँधा था (पृष्ठ ३७३) इससे तो उल्टा यह सिद्ध होता है कि मुख-वस्त्रिका बँधी हुई तो थी, पर रानी की तरह (त्रिकोन कर नाक व मुँह दोनों को) बाँधी हुई नहीं थी। अतः ऐसा करने का रानी ने श्री गौतमस्वामी से निवेदन किया। इस से हाथ में रखना मान लेना अनुचित एवं श्री गौतमस्वामी जी को कुलिंग युक्त मानना है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान **** वाली मुखवस्त्रिका ही है। मुखवस्त्रिका के मुँह पर बँधी रहते हुए भी उससे दुर्गन्ध का प्रवेशद्वार तो स्पष्ट खुला हुआ ही था । इसीलिए उस द्वार (नासिका) को बन्द करने के लिए ही उसने ऐसा कहा था। इससे एक बात यह भी पाई जाती है कि श्री गौतमस्वामी के मुँह पर जो मुखवस्त्रिका बंधी हुई थी वह ओष्ठ पर ही थी, न कि नासिका पर, और इसीलिए रानी को वैसा कहना पड़ा। अन्यथा क्या आवश्यकता थी? अतएव नाक पर से लेकर बाँधने की पद्धति अर्वाचीन ही प्रतीत होती है। ३० (२) शंका - आचारांग सूत्र में कहा है कि - साधु छींक, उबासी, डकार, खाँसी आदि लेते समय मुँह को हाथ से ढक ले, फिर यतना पूर्वक वायु निकाले । यदि मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधना सूत्र सम्मत T होता, तो हाथ से यतना करने का क्यों कहा जाता ? - समाधान आपकी यह शंका भी मत-मत्तता ही जाहिर करती है। क्योंकि इस कथन से मुख वस्त्रिका का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह पाठ लिखकर आपकी शंका का समाधान किया जाता है। देखिए आचारांग सूत्र का वह पाठ से भिक्खु वा भिक्खुणी वा ऊसासमाणे वा णीसासमाणे वा, कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उडुएण वा वायणिसग्गे वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपिहित्ता तओ संजयामेव ऊससेज्ज वा जाव वायणिसग्गं वा आचारांग सूत्र श्रु० २ शय्याध्ययन उ० ३ सू० ७१० करेज्जा । WO - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि अर्थ - वह साधु अथवा साध्वी उच्छ्वास अथवा निच्छ्वास लेते हुए, अथवा खांसी, छींक, जंभाई, उबासी, डकार तथा वायूत्सर्ग, इन क्रियाओं को करते हुए पहले ही मुख को तथा गुदा को हाथ से ढक कर बाद में उच्छ्वास ले, यावत् वायूत्सर्ग करे । यहाँ शास्त्रकार ने उच्छ्वासादि सात कारणों (प्रसंगों) में मुख व अधो-भाग को हाथ से ढकना फरमाया है। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि उस समय यदि हाथ में मुखवस्त्रिका रखने का रिवाज होता तो सूत्रकार हाथ से यतना करने का क्यों कहते ? जब कि मुखवस्त्रिका रखने के प्रधान हेतु में वायुकायादि जीवों की रक्षा मुख्य है, तब ऐसे प्रसंगों के लिए हाथ से यतना करने का विधान कुछ और ही महत्त्व रखता है। इसका खास कारण यह है कि - उच्छ्वास, छींक, उबासी आदि प्रसंगों पर मुख की वायु प्रबल वेग वाली हो जाती है । वह मुखवस्त्रिका के मुँह पर होते हुए भी बिना किसी बाधा के वेग पूर्वक निकल जाती है, जिससे बहुत अयतना होती है, उक्त प्रसंगों पर सारा मुँह खुल जाता है। और इतने जोर से वायु निकलती है कि कई बार कमर में से धोती की किनार तक टूट जाती है। ऐसा प्रबल वायु का वेग ओष्ठ पर रही हुई मुखवस्त्रिका की क्या दरकार करे ? बस इसीलिए शास्त्रकार ने इन इन प्रसंगों पर विशेष यतना के लिए हाथ के उपयोग करने का विधान किया है, जिससे ठीक तरह यतना हो सके । ** ३१, ** यदि इस विधान से मुखवस्त्रिका का मुँह पर होना नहीं मानेंगे तो आपको अधोभाग भी वस्त्र रहित मानना पड़ेगा, क्योंकि वहाँ भी हाथ से यत्ना करने का कहा है । वस्त्र धारण करना तो मानना और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ शंका-समाधान ************************************** जो जैन साधुत्व की प्रधान परिचायिका मुखवस्त्रिका है, उसे नहीं मानना कहाँ की बुद्धिमानी है? ___इस व्यर्थ की शंका में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है, वो यह कि उच्छ्वासादि सात प्रसंगों में “बोलने' का तो कोई प्रमंग भी नहीं बताया है। इसलिये आपके मतानुसार तो खुले मुँह ही बोलना चाहिए। क्योंकि इससे तो आपका कर वस्त्र (हाथ में रहने वाला वस्त्र) भी उड़ जाता है। इसलिये कुतर्के छोड़ कर जरा सरल बुद्धि से इस प्रकार समझो कि मुख पर मुखवस्त्रिका तो अवश्य रहती ही है, पर उच्छ्वासादि प्रसंग पर मुख के वायु का वेग अत्यन्त प्रबल हो जाता है, उस समय मुखवस्त्रिका के रहते हुए भी पूर्ण यना नहीं हो सकती। इसलिये ऐसे प्रसंगों पर हाथ से विशेष यत्ना करना ही उचित है। ज्ञानसुन्दरजी! प्रसन्न होने की बात तो जब होता कि आचारांग में बोलने का प्रसंग भी बताया गया होता, व साथ ही यत्ना के स्थान "पाणिणा" के साथ साथ पाणिणा-मुहणंतगेण, या मुहणंतगेण ही होता। पर उस समय हमारे हस्तवस्त्री महानुभावों का सद्भाव ही नहीं था, अन्यथा ऐसे अवसरों पर ये कहाँ चूकने वाले थे? अतएव सिद्ध हो गया कि आचारांग का नाम लेकर हाथ में मुखवस्त्रिक रखना सर्वथा अनुचित है। (३) शंका - श्री ज्ञानसुन्दरजी ने हाथ में मुखवस्त्रिका रखने के पर में भगवती सूत्र का प्रमाण दिया है, इसका क्या उत्तर है? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि . ********************** **** ********* समाधान - भगवती सूत्र का नाम लेकर हाथ में वस्त्र रखने का कहना भी भूल है। भगवती सूत्र में श्री गौतमस्वामी के प्रश्न करने पर श्रमण भगवन्त श्री वीर प्रभु ने फरमाया कि जब शक्रेन्द्र मुख पर वस्त्रादि रखकर बोलता है, तो वह निर्वद्य भाषा बोलता है। और वस्त्रादि रहित खुले मुँह बोलता है, तब सावध भाषा बोलता है। श्री गौतमस्वामीजी के इस प्रकार के प्रश्न का यी आशय है, कि हम जो साधु हैं सो तो सदैव मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधी रखते हैं, जिससे वायुकायादि जीवों की दया होती है। परन्तु शक्रेन्द्र कभी तो वस्त्र से यत्ना करके बोलता है, व कभी वैसे ही खुले मुँह भी बोलता होगा। क्योंकि यह तो हमारी तरह मुखवस्त्रिका धारण नहीं करता है। तब इसकी भाषा कैसी कही जायगी? ठीक इसी विचार से यह प्रश्न उपस्थित हुआ मालूम होता है, जिसका प्रभु ने पूर्वोक्त उत्तर दिया है। प्रभु ने वहाँ देवेन्द्र का लिहाज नहीं करते हुए स्पष्ट फरमा दिया कि जब शक्रेन्द्र वस्त्रादि से यत्ना कर बोलता है, तभी वह भाषा निर्वद्य हो सकती है, अन्यथा सावद्य। भला ऐसे कथन से ज्ञानसुन्दरजी किस प्रकार हाथ में वस्त्र रखना सिद्ध करते हैं? इससे तो उल्टा इन्हें यह उपदेश प्राप्त करना चाहिए कि जब अविरति गृहस्थ देवेन्द्र होते हुए भी निर्वद्य भाषा के लिए वस्त्रादि से मुँह की यत्ना करके बोलता है, तब हम तो साधु हैं। सर्वथा दया पालना ही हमारी प्रतिज्ञा है, हमें तो अपनी प्रतिज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने केलिए मखवस्त्रिका मुँह पर धारण करनी ही चाहिए। जिससे एक तो जीवों की दया रूप प्रतिज्ञा के पालक बनें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ************************************** और दूसरा जैन साधु का लिंग भी हमारा कायम रहे। जिसके अवलोकन करने से भव्य जीवों के हृदय में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा एवं अहिंसा के प्रति प्रेम उत्पन्न हो। इस तरह संसार का भी कुछ उपकार हो। पूर्व इतिहास भी कहता है कि साधु को देख लेने से ही कइयों को वैराग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने क्रमशः अपना आत्मकल्याण भी कर लिया। यह बिना मुखवस्त्रिका के कैसे हो सकता है? नग्न सिर व हाथ में दण्ड झोली आदि तो अन्य सम्प्रदाय के साधु लोग भी रखते हैं। पर मुख्यतः एक मुखवस्त्रिका ही जो मुँह पर बँधी रहती है, ऐसी है कि जिससे दूर से जैन साधुत्त्व का परिचय मिल सके। __अतएव भगवती सूत्र का नाम लेकर मुखवस्त्रिका हाथ में रखना नितान्त अनुचित है। शंका - श्री ज्ञानसुन्दरजी ने एक प्रमाण फिर आचारांग का दिया है उसमें यह बताया है कि "वस्त्र रहित रहने वाला साधु ऐसा विचार करे कि मैं तृण, शीतोष्ण, दंस, मशग, आदि परीषह तो सहन कर लूंगा पर गुह्य प्रदेश (पुरुष चिन्ह) की लज्जा रूप परीषह को सहन करने में असमर्थ हूँ, ऐसे साधु को एक कटिबंध रखना कल्पता है" इस प्रमाण पर से सुन्दरजी ने यह तर्क की है कि - सूत्र में तो केवल एक कटिबन्ध रखना कहा है, तब आप के मुँहपत्ति का डोरा कहाँ रहा? इसका क्या समाधान है? समाधान - ऐसी मिथ्या तर्के ही अपने कर्ता का पक्ष व्यामोह सिद्ध करती हैं। देखिये - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************************************** ___ यह आचारांग का वचन केवल लज्जा निवारण के लिए वस्त्र रखने का विधान विशेष क्रिया रूप से ही करता है। इससे तो कोई यह भी तर्क कर सकता है कि - कटि वस्त्र के सिवाय अधिक वस्त्र रखना भी अनुचित होगा? पर यह तो हमारे तर्ककर्ता सुन्दरजी को भी मान्य नहीं है। और इससे तो इनका हाथ में वस्त्र रखना भी उड़ जाता है। फिर इन्हें यह कर-वस्त्र भी त्याग देना चाहिये, क्योंकि इस सूत्र से तो यह भी रखना सिद्ध नहीं होता। सुन्दरजी को मुखवस्त्रिका के प्रति अपने वैर भाव को छोड़ कर शान्त एवं शुद्ध हृदय से विचार करना चाहिये कि सूत्रकार ने विधिवाद में साधु-साध्वियों के पछेवड़ी, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका आदि रखने की आज्ञा दी है। यह सूत्र तो अपवाद रूप विशेष शक्ति वालों के लिये अचेलक आदि विशेष क्रिया का ही प्रतिपादक है फिर भी वहाँ धार्मिक उपकरण व खास कर साधु वेष को बताने वाले मुखवस्त्रिकादि का अभाव नहीं होता। केवल परीषह सहन ही इसका मुख्य उद्देश्य है और मुखवस्त्रिका जो मुँह पर बाँधी जाती है, इससे भी कष्ट (परीषह) तो होता ही है। अतएव यहाँ धार्मिक उपकरण को उड़ाने के लिये उक्त सूत्र की साक्षी देना सत्य का खून करना है। वैसे तो श्री सुन्दरजी ने भी प्रश्न व्याकरण का प्रमाण देकर मुखवस्त्रिका रखना मान्य किया है। फिर ऐसा प्रमाण (जो मुखवस्त्रिका के लिये लागू नहीं होता) देने से क्या लाभ है? इससे तो इनका हाथ में वस्त्र रखना भी उड़ जाता है। फिर इसमें तो इन्होंने केवल 'डोरे" से ही द्वेष प्रदर्षित किया है वह सर्वथा अनुचित है। ऐसी थोथी दलील से इनका अभीष्ट कदापि सिद्ध नहीं हो सकता। उल्टी मतोन्मत्ता ही टपकती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ शंका-समाधान (५) शंका अङ्ग चूलिया सूत्र का प्रमाण तो स्पष्ट हाथ में मुखवस्त्रिका रखने का विधान कर रहा है जिसको श्री ज्ञानसुन्दरजी ने दिया है, इस विषय में आपका क्या समाधान है ? समाधान इस शंका का समाधान तो स्वयं सुन्दरजी ने ही कर दिया है। वे लिखते हैं कि यह सूत्र स्थानकवासी समाज को मान्य नहीं है इसलिये इसका प्रमाण देना ही अनुचित है । हमारी तो दृढ़ मान्यता है कि कोई भी ग्रन्थ क्यों न हो, उसका जो वचन वीतराग वाणी को बाधा कारक नहीं हो, वही हमारा मान्य है। कितने ही शास्त्रों में अनिष्ट परिवर्तन हुवा है जिसका प्रमाण मैंने "लोकाशाह मत समर्थन” नामक पुस्तक में दिया है। खास अङ्गोपाङ्ग में ही जब मनमाना फेरफार कर दिया गया है, तो अन्य की तो बात ही क्या है ? यहाँ प्रकरण विशेष बढ़ जाने के भय से हम उन प्रमाणों को नहीं लिख रहे हैं। - प्रमाण वही उचित हो जो उभय समाज सम्मत हो । हमने भी ऐसे ही प्रमाण और खास कर हमारे प्रतिस्पर्धी (हाथ में वस्त्र रखने वाली) समाज के ही दिये हैं। अतएव केवल एक पक्ष को ही मान्य तथा सदोष ऐसे प्रमाण कुछ भी कार्य साधक नहीं हो सकते। (६) शंका - तुम्हारे मान्य ३२ सूत्रों के अन्दर दशवैकालिक सूत्र है, उसमें मुखवस्त्रिका को " हत्थग" कहा है, इससे हाथ में रखना सिद्ध होता है। इसको आप कैसे अमान्य कह सकते हैं? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि समाधान - यह शंका भी अज्ञान या मत मोह से प्रेरित होकर ही की गई है। क्योंकि दशवैकालिक सूत्र के उस प्रमाण से मुखवस्त्रिका का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । यह " हत्थग " शब्द दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अ० प्रथमोद्देश की ८३ वीं गाथा में आया है। उस सारी गाथा को यहाँ लिख कर समाधान किया जाता है ३७ ** अन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छिन्नंमि संवुडे । " हत्थगं" संपमज्जिता, तत्थ भुंजिज्ज संजए ॥ ८३ ॥ अर्थ- बुद्धिमान् साधु गृहस्थ की आज्ञा लेकर ढके हुए स्थान में उपयोग सहित प्रमार्जनी (पूँजनी - रजोहरणी) से शरीर के हाथ पाँवादि अवयवों को सम्यक् प्रकार से प्रमार्जन कर वहाँ भोजन करे । इस गाथा में जो " हत्थग" शब्द आया है वह हाथ आदि अवयवों को प्रमार्जनी से पूँजने के अर्थ को बताने वाला है और यही अर्थ यहाँ उपयुक्त एवं प्रकरण के अनुकूल भी है। क्योंकि वहाँ हाथ आदि को प्रमार्जन करने की आवश्यकता है, न कि बोलने की, उल्टा उस समय तो मुखवस्त्रिका को मुँह से पृथक् करना पड़ता है। कारण भोजन समय का प्रसंग है और प्रमार्जन क्रिया जो है वह प्रमार्जनी से ही होती है | मुखवस्त्रिका से प्रमार्जन करने की तो कोई विधिही नहीं है। टीकाकार ने जो " हत्थग" शब्द का अर्थ - मुखवस्त्रिका किया है, यह केवल अर्थ का अनर्थ ही मालूम होता है । मुखवस्त्रिका को किसी भी स्थान पर 'हत्थग' नहीं कहा है। इस तरह शब्दों की खींचतान कर अपना पक्ष जमाना निष्फल प्रयास ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ** शंका-समाधान ********* (19) शंका - श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने आवश्यक सूत्र का अवतरण देकर जो हाथ में मुँहपत्ति रखना सिद्ध किया है, उसका क्या उत्तर है ? समाधान - श्री ज्ञानसुन्दरजी ने स्व० पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज से अनुवादित आवश्यक सूत्र के " कुइए कक्कराईए छीए" का अवतरण देकर यह सिद्ध करना चाहा है कि यदि मुखवस्त्रिका मुख पर होती, तो ऐसा प्रसंग ही क्यों आता ? इस विषय में आपको यह समझना चाहिए कि साधुओं को कितने ही प्रसंगों पर मुखवस्त्रिका मुंह से अलग भी करनी पड़ती है। जैसे भोजन करते समय, पानी पीते समय, दवाई लेते समय या अन्य ऐसे ही किसी प्रतिलेखना आदि प्रसंग पर मुखवस्त्रिका मुँह से दूर की हो, और हठात् बोलने आदि का काम पड़ जाने से, उस समय यदि खुले मुँह बोला गया हो, ऐसे ही रात्रि में निद्रा लेते प्रमादवश मुखवस्त्रिका मुँह से हट गई हो, और अचानक कभी ऐसा प्रसंग बना हो, उसके लिए यहाँ मिथ्या दुष्कृत्य दिया गया है। ऐसे प्रमाद के कार्यों का उदाहरण देकर हाथ में वस्त्र रखने की सिद्धि करना सत्य से सर्वथा दूर है। क्या आपको प्रमादी हालत के प्रमाण ही अभीष्ट हैं? (८) इसी प्रकार प्रत्याख्यान प्रसंग में आए हुए “अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं” शब्द से भी जो भ्रम फैलाया गया है, उसके लिए भी सुन्दरजी को यही समझना चाहिए कि ऐसे प्रसंग प्रमादावस्था से उपस्थित होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ऐसा कई बार देखने, सुनने व अनुभव में आया है कि प्रमाद के कारण व्रत का स्मरण नहीं रहने से जिस वस्तु का त्याग किया गया है वो (या उपवासादि प्रसंग में कोई ) वस्तु अचानक मुँह में डाल दी जाती है। और फिर व्रत का स्मरण होता है तब पश्चात्ताप होता है । ठीक ऐसे ही प्रसंग का यह आगार है। इसमें इसी तरह समझना होगा कि - यदि किसी साधु ने कुछ व्रत (उपवासादि) किया हो, और भिक्षाचरी के समय अन्य गुर्वादि साधुओं के लिए आहारादि लाया हो और सदैव के अभ्यास (मुहावरे ) के कारण व्रत का स्मरण नहीं रहने से भोजन करने बैठा हो, और कुछ त्यागी हुई वस्तु मुँह में डाल भी ली हो, अथवा एक पात्र में दूध, दाल, पानी आदि परिवर्तन करते समय उस प्रवाही वस्तु का छींटा उड़ कर मुँह में गिर गया हो तो वैसे प्रसंग का यह आगार बताया गया है। ऐसे प्रसंगों का सहारा लेकर अपनी शिथिलाचार रूपी खुले मुँह रहने की प्रवृत्ति को शास्त्र सम्मत कहना मानो डूबते हुए को तिनके का सहारा लेना है। ऐसा प्रयास सदा निष्फल ही सिद्ध होता है। ** ३६ (ह) वैसे ही दशवैकालिक की अनाचार सम्बन्धी व्याख्या में दन्तधावन और दर्पण में मुँह देखने आदि के अनाचार विषयक कुतर्क की गई है। ज्ञानसुन्दरजी को मुखवस्त्रिका हाथ में रखने का जब सूत्र मान्य कोई प्रमाण नहीं मिला, तब ऐसे अनाचारों का नाम लेकर आपने अपना पक्ष कुछ समय के लिए कायम रखने व स्वमान्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ४० शंका-समाधान ************** ************************ समाज में वाहवाही प्राप्त करने की चेष्टा की है। पर शायद आप यह भूले हुए हैं कि अनाचार तो अनाचार (जो आचरण करने योग्य नहीं) ही है। जो इनका सेवन करेगा वह अनाचारी ही होगा। तथा इनका सेवन मुखवस्त्रिका के होते हुए भी हो सकता है। इसके लिए बाँधने न बाँधने का कोई प्रश्न नहीं हो सकता, क्योंकि हड्डी, माँस त्वचा आदि को सुख उपजाने के लिए जिस प्रकार तैलादि का मर्दन करना पूर्व के अनाचार में बताया है, वह किसी को दिखाने के लिए नहीं, पर शरीर को साता पहुँचाने के लिए है। ऐसे ही दन्तधावन भी मुँह और दाँतों को विशेष रूप से शान्ति पहुंचाने या पुष्टि करने के निमित्त करना अनाचार बताया है। इसमें मुँहपत्ति बाँधने व खोलने का प्रश्न ही कैसे उपस्थित हो सकता है? और जो काच में मुंह देखने के विषय में आपकी शंका हो तो यह भी निरर्थक है। क्योंकि यह तो मुखवस्त्रिका के बँधी हुई होते हुए भी हो सकता है। दूसरा जो अनाचार का सेवन करेगा वह प्रायः किसी के देखते तो करेगा ही नहीं, अगर गुप-चुप जिसे अनाचार सेवन करना है वह मुखवस्त्रिका रखकर या छोड़कर करे, इसकी चिन्ता हम क्यों करें? सूत्रकार ने तो ऐसा करना अनाचार बताया है जो छोड़ने योग्य है। अतएव अनाचारों के उदाहरण शुद्ध क्रिया में देकर भ्रम फैलाना सुज्ञजनों का कार्य नहीं है। (१०) ___इसी प्रकार निशीथ सूत्र में मुँह व दाँत से वीणा नामक वादिंत्र जैसे बना कर बजाने के प्रायश्चित्ताधिकार में भी कुतर्क की गई है, यह भी सर्वथा अनुचित है। क्योंकि यह मुखवस्त्रिका के होते हुए भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ४१ ************************************** हो सकती है। इसमें मुखवस्त्रिका कोई खास बाधा नहीं पहुँचाती और दोष सेवन करने वाला जिसे शुद्ध संयम पालन करने का प्रेम ही नहीं है, वो यदि मुखवस्त्रिका खोलकर भी ऐसे दोषों का सेवन करे तो भी इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि वहाँ तो प्रायश्चित्त कहा है। इसलिए ऐसी निरर्थक बातों का प्रमाण देना, स्वयं प्रमाणों का अभाव सिद्ध करना है। (११) निशीथ सूत्र के पाँचवें उद्देशे में विभूषा के लिए दाँत घिसने का जो दण्ड निर्माण किया है, उससे भी हाथ में वस्त्र रखना सिद्ध नहीं . हो सकता। क्योंकि इसी सूत्र में आगे चलकर गुह्य प्रदेश की शोभा बढ़ाने के सम्बन्ध में भी वर्णन आता है। अगर विभूषा का अर्थ लोगों में शोभा प्रदर्शित करना ही किया जायगा तो दाँतों पर तो फिर भी सामुदायिक साधुओं की दृष्टि पड़ सकती है किन्तु गुप्ताङ्ग का सम्मार्जन किसे दिखाने के लिये है? फिर यहाँ विभूषा कैसी? इस विषय में तो आपको नग्नता ही माननी पड़ेगी? तभी गुप्ताङ्ग की शोभा का प्रायश्चित्त विधान सच्चा हो सकता है। महाशय! जरा गीतार्थों से सूत्र के रहस्य समझो और फिर अन्य को समझाने बैठो। अन्यथा “लेने गई पूत, और खो गई खसम" वाली कहावत चरितार्थ होगी। अतएव इस तर्क में भी कोई तथ्य नहीं है। (१२) अब इनके दशवैकालिक के दूसरे प्रमाण पर विचार करते हैं। इन्होंने जयं भुंजतो "भासंतो" शब्द पर से ही अपने कर वस्त्र की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ शंका-समाधान *** सिद्धि मानली है । यह प्रत्यक्ष में भाषा समिति विषयक अज्ञता सिद्ध करती है। इनको यतना पूर्वक बोलने के विधानों के शास्त्रों में स्पष्ट एवं विस्तार पूर्वक जो कथन हैं उन्हें देख लेना चाहिये। उससे मालूम हो जायगा कि यत्ना पूर्वक बोलना किसे कहते हैं । इन्होंने इसका अर्थ करने में जो अपनी सङ्कचित वृत्ति प्रकट की है, वह हास्यास्पद ही है। इन्हें यतना पूर्वक बोलने का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए कि जिससे वो अर्थ सिद्धान्त निर्दिष्ट सभी विधानों को लागू हो सके। यदि संक्षेप में इस वाक्य का अर्थ किया जाय तो निम्न प्रकार से हो सकता है: १. यत्नापूर्वक वह भाषा कि जो वीतराग वचनों से • सम्मत होकर जैन शासन का प्रभाव फैला सके। हो । २. यत्नापूर्वक वह भाषा कि जिससे किसी भी प्राणि का अनिष्ट न हो और न किसी के हृदय में चोट पहुँचे । ३. यत्नापूर्वक वह भाषा कि जिससे गुरुओं का निरादर न - - - ४. यत्नापूर्वक वह भाषा कि जिससे संसार रत जीवों का उत्थान और कल्याण हो । रखना कदापि सिद्ध नही हो सकता । Jain Educationa International ५. यत्नापूर्वक वह भाषा जो - अमङ्गल में मङ्गल, अशांति में शांति एवं क्लेश के स्थान पर संप स्थापन करे । इत्यादि अनेक अर्थ हो सकते हैं। ऐसे अनेक शुभ अर्थ प्रकाशक शब्द केवल अपने मत की सिद्धि करने के लिए मनमाना संकुचित अर्थ कर डालना प्रत्यक्ष पक्ष व्यामोह है । अतएव "जयं भुञ्जन्तो भासन्तो" शब्द से हाथ में वस्त्र For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि (१३) शंका - ज्ञानसुन्दरजी ने लिखा है कि दिन भर डोरा डाल मुंहपत्ती बांधनो वालो को शासन-भंजक, निन्हव कुलिंगी समझते है । तो इस विषय में आप हमेशा मुंहपत्ती मुंह पर बांधना, और वह भी डोरे से, क्या जैन लिंग के लिए इसको पृथक् पृथक् सिद्ध कर सकते हैं? ४३ *** समाधान - हां, महाशय ! हम सिद्ध तो कर चुके हैं, और फिर भी कर सकते हैं। पर ज्ञानसुन्दरजी ने हमारी समाज पर जो प्रेम एवं सहृदयता प्रकट की है, वह तो उनके योग्य ही है। क्योंकि हमारी समाज में ये महानुभाव रह चुके हैं। इसीके अन्न जल से इनकी देह बढ़ी है। तीसरा ज्ञान - दान भी इन्हें इसी समाज के खजाने से प्राप्त हुआ है। यदि इसके उपलक्ष्य में ज्ञानसुन्दरजी अपशब्द -गालियाँ प्रदान नहीं करें तो क्या करें? कुछ बदला तो चुकाना ही चाहिये । महाशय ! आपको ध्यान रहे कि ज्ञानसुन्दरजी जो कुछ कह रहे हैं वो केवल आन्तरिक द्वेष के कारण ही । क्योंकि साधुमार्गीय समाज से इन महाशय को चरित्रहीनता के कारण बिदाई मिली है। उस वैर का बदला गाली प्रदान द्वारा नहीं लें तो फिर क्या करें ? अब आप अपने प्रश्न का उत्तर क्रम से लीजिये दिन भर मुखवस्त्रिका बाँधना - जब कि हमेशा मुखवस्त्रिका हाथ में रखने वालों के मान्य सिद्धान्तों में मुँह की वायु से बाहर की वायुकाय की हिंसा होना सिद्ध हो चुका है । और मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधना भी सिद्ध हो चुका है। फिर ऐसी शंकाओं के लिये तो स्थान ही कहाँ ? फिर भी प्रकरण की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ************************************** शंका-समाधान विशेष पुष्टि और शंका के विशेष समाधान के लिये कुछ और बता देना उचित है। देखिये - यह तो आप जानते ही हैं कि मुँह से वायु तो निकलती ही रहती है। उसके निकलने का कोई नियत समय तो है ही नहीं। ऐसी हालत में हमेशा मुँहपत्ति नहीं बाँधने से पूरी यत्ना किस प्रकार हो सकती है? ___ दूसरा, नहीं बाँधकर हाथ में रखने वाले भी निम्न लिखित प्रसंगों पर तो बाँधना स्वीकार करते ही हैं। देखिये - "मुँहपत्ति चर्चासार" में रत्नविजयजी गणि पृ० ४० पंक्ति ७ से लिखते हैं कि - ___ यद्यपि खास बाँधवाना प्रसंगोनुं चोक्टुं नक्की तारण कदाच आपणे न काढी शकीए तो पण सामान्य सिद्धान्त ए तारवी शक्या के ज्यारे ज्यारे बाँध्या बिना उपरना प्रयोजनो बरोबर सिद्ध न करी शकाय, त्यारे त्यारे बांधवीज जोइए, ते बाँधवाना प्रसंगोमां खास करीने नीचेनी बाबतोनो समावेश थशेः(१) स्वाध्याय - १. वाचना ५. स्थंडिल गमन २. पृच्छना ६. व्याख्यान प्रसंग ३. परावर्तना ७. धर्मकथा ४. वसति प्रमार्जन ८. मृतक ने, विगेरे, (२) पडिलेहणा - १. पात्र पडिलेहणा २. स्थापना पडिलेहणा . ३. उपधि पडिलेहणा ४. ओघानी पडिलेहणा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only... Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ४५ *********** ************************ *** __ उपरोक्त प्रमाण से यह सिद्ध हो गया कि वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, धर्मकथा, प्रतिलेखना, प्रमार्जना, स्थंडिल गमन, व्याख्यान प्रसंग आदि में मुखवस्त्रिका अवश्य बाँधनी चाहिये। • यद्यपि उक्त प्रसंगों पर बाँधना और बाकी के समय में हाथ में रखना, ऐसा लेखक का अभिप्राय हो सकता है, तथापि लेखक यह तो स्वीकार करते हैं कि “अभी यह निश्चय अपूर्ण ही है" लेखक के ये शब्द ही कह रहे हैं कि - अभी इसमें और विचार करने की आवश्यकता है। देखिये, वे शब्द "यद्यपि खास बाँधवानाँ प्रसंगोनुं चोक्खू नकी तारण कदाच आपणे न काढी शकिए" ये शब्द ही उपरोक्त प्रसंगों के सिवाय भी बाँधने की गुञ्जाइश बताते हैं। इतने प्रसंगों पर तो बाँधना इन्हें भी स्पष्ट स्वीकार है। फिर भी ये लोग इन सब प्रसंगों पर नहीं बाँधते हैं। इससे तो यही पाया जाता है कि ये लोग मत-मोह एवं शिथिलता में पड़ कर संयम तथा चारित्र के प्रति उपेक्षा ही करते हैं *। - *सरे बाजार कई हस्त-वस्त्री साधुओं को खुले मुँह बोलते देखा गया है अतएव ऐसे समय भी मुख-वस्त्रिका मुँह पर बाँधी रहनी चाहिए। . तारीख १० अक्टोबर सन् १९३७ की बात है जब यह लेखक स्वयम् अहमदाबाद गया था, वहाँ अन्य दो स्वधर्मियों के साथ...गच्छ के उपाश्रय में गया, वहाँ के वृद्ध आचार्य निद्रा ले रहे थे और खुले मुंह खुरटि भर रहे थे। उस समय हमने उनके एक साधु के साथ लगभग २०-२५ मिनिट तक वार्तालाप की मगर उन महानुभाव की मुख-वस्त्रिका के दर्शन हमें उनके कमर में पहने हुए चोल पट्टक में खोंसे हुए हुआ और उस समय दूसरे एक साधु अन्य गृहस्थ से वार्तालाप कर रहे थे पर वहाँ भी हस्त वस्त्र के उपयोग का अभाव ही था। इस प्रकार मुख-वस्त्रिका की ये लोग दुर्गति करते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ************** ********** ************** अब हमारे पाठक ही सोचें कि - उक्त प्रसंगों के सिवाय बाकी क्या, व कौनसा कार्य वा समय ऐसा रह जाता है, जिसमें मुखवस्त्रिका बाँधे बिना रहा जाय। जो लोग मुख से निकलती हुई वायु से बाहर की सचित्त वायुकाय की हिंसा होने की मान्यता रखते हैं, उनके लिये भोजन पान के सिवाय ऐसा कोई भी समय नहीं है कि वे खुले मुँह बिना मुखवस्त्रिका बांधे रह सकें। बाँधने के उक्त प्रसंगों के सिवाय अब मुख्यतया चार प्रसंग और रह जाते हैं, एक तो भिक्षाचरी गमन, दूसरा ध्यान (कायोत्सर्ग), तीसरा शयन और चौथा प्रतिक्रमण। क्या इन प्रसंगों पर भी मुखवस्त्रिका बाँधने की आवश्यकता है? इस पर भी थोड़ा विचार किया जाता है। (१) जब गोचरी (भिक्षाचरी) के लिए साधु जाते हैं, तब मार्ग में चलते समय यदि उनके मुँह पर मुखवस्त्रिकाएँ होती हैं तब तो उनका परिचय अपने आप अन्य मतावलम्बियों को हो जाता है। मुखवस्त्रिका के मुँह पर होने से वे पहिचान लेते हैं कि ये जैन साधु हैं। परन्तु मुखवस्त्रिका मुँह पर नहीं होकर हाथ में ही हो तो वह जैन लिंग की परिचायिका नहीं ठहर सकती। क्योंकि वैसे हाथ में तो प्रायः कई सम्प्रदाय के साधु कपड़ा आदि रखते हैं। दूसरा यह देखने में आया है कि सम्वेगी साधु जब भिक्षा ग्रहण करते हैं तब एक हाथ में तो उनके दण्ड और झोली रहती है। दूसरे हाथ से वे भिक्षादाता को कम लेने व नहीं लेने का लम्बा हाथ कर इशारा करते हुए साथ ही थोड़ा थोड़ा, या नहीं नहीं, ऐसा मुंह से कहते जाते हैं। यह सब खुले मुँह ही होता है। यदि मुँह पर मुखवस्त्रिका बंधी हुई हो तो ऐसी अयला कदापि नहीं हो सकती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ४७ ************************************** अतएव भिक्षाचरी को जाते समय भी मुखवस्त्रिका लिंग परिचय एवं जीवों की यत्ना के लिए अवश्य बन्धी हुई होनी चाहिए। (२) अब ध्यान-कायोत्सर्ग के प्रसंग पर विचार करते हैं। जिस समय कायोत्सर्ग होता है, उस समय ये लोग अपने दोनों हाथों को दोनों जंघाओं पर खुल्ले फैला देते हैं, कायोत्सर्ग में शरीर भी स्थिर रखना पड़ता है। ऐसे समय यदि किसी अन्यमतावलम्बी की इन पर दृष्टि पड़ जाय तो इन्हें कोई जैन साधु नहीं जान सकता। दूसरा कायोत्सर्ग पालते समय भी असावधानी से अयत्ना हो जाना सम्भव है। (३) शयन के समय निद्रा लेते समय मुखवस्त्रिका मुंह पर नहीं बाँधने वाले से किस प्रकार यत्ला हो सकती होगी? श्वासोच्छ्वास के सिवाय खाँसने आदि की भी प्रवृत्ति अकस्मात् हो जाती है और मुखवस्त्रिका उस समय या तो सिरहाने या अन्य कहीं विराजमान रहती है। तब ऐसे समय तो अयत्ना अवश्य ही होती है। इसलिए इस समय भी मुखवस्त्रिका अवश्य मुँह पर बंधी रहनी चाहिए। (४) प्रतिक्रमण करते समय भी मुखवस्त्रिका मुख पर रहनी आवश्यक है। क्योंकि जब वन्दना नमस्कार किया जाता है, तब और शक्रस्तव करते समय दोनों हाथ घुटने पर जोड़े हुए रख कर मस्तक झुकाकर पाठ उच्चारण किया जाता है, एवं खमासमणा देते हुए आवर्त करते समय मुख से पाठ उच्चारण और हाथों में आवर्तन किया जाता है, उस समय हाथ में रही हुई मुखवस्त्रिका यत्ना के कार्य में अनुपयोगी सिद्ध होती है और अयत्ना हो ही जाती है। ऐसे समय में यदि मुखवस्त्रिका मुँह पर बंधी हुई हो तो यत्ना अच्छी तरह से हो सकती है, अन्यथा नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ शंका-समाधान ************************************** इस तरह दूरदर्शी होकर यदि विचार किया जाय तो यही निश्चय होता है कि मुखवस्त्रिका को सदैव मुख पर बांधना ही उचित है। जो लोग मुँह पर मुखवस्त्रिका नहीं बांधते हैं वे न तो वायुकायादि जीवों की यत्ना ही कर सकते हैं और लिंग रहित होने से, न जैन साधु ही कहे जा सकते हैं। जो महाशय मुखवस्त्रिका को मुँह पर नहीं बांधते हैं वे पूर्वार्ध में बताए हुए प्रमाणों और उनके आचार्यों के उद्गारों को पढ़कर यदि शांत भाव से विचार करेंगे तो उन्हें अवश्य विश्वास होगा कि मुखवस्त्रिका मुँह पर सदैव बांधना उचित ही है। अगर वे मत-मोह से इतना नहीं कर सकें तो कम से कम अपने आचार्यों के निर्देश किये हुए प्रसंगों पर तो मुख पर मुँहपत्ति बांधकर धार्मिक क्रियाओं में होने वाली उतनी हिंसा से अवश्य बचेंगे, ऐसी आशा है। महानुभावो! यदि सदैव बांधने के कष्ट से डरकर हमेशा मुखवस्त्रिका नहीं बांध सको तो कम से कम उक्त प्रसंगों पर तो अवश्य बांधो और सदैव बांधने वालों की निन्दा तो मत करो। सदैव बांधने वालों को आदर की दृष्टि से देख कर उनका अनुमोदन करो और वैसी क्रिया करने की भावना रक्खो, जिससे मिथ्यात्व रूप पाप से तो बचे रहोगे। क्योंकि स्वयं सागरानन्द सूरि लिखते हैं कि - “निरवद्य भाषानी प्रतिज्ञा वाला छतां जो मुँहपत्ति ने न माने तो मिथ्यात्त्वी बने" अतएव मिथ्यात्त्व रूपी आस्रव से बचने का अवश्य प्रयत्न करिये। अन्यथा ध्यान रहे कि असत्य प्रचार में अपनी शक्ति का दुरुपयोग कहीं पर-भव पीडाकारी शूल न हो जाय। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** मुखवस्त्रिका सिद्धि ४६ ** मुँहपत्ति में डोरा डालना - जहां मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधना सिद्ध है वहां यह शंकाही अनुचित है कि मुखवस्त्रिका डोरे से क्यों बांधी जाय ? फिर भी इस सम्बन्ध में विचार किया जाता है। मुखवस्त्रिका होती तो वस्त्र की ही है और वह भी आठ प्रत वाली और कानों से लेकर ही बांधी जाती है। तब बांधने के लिए किसी दूसरी चीज की आवश्यकता होती ही है। वह वस्त्र, सूत या डोरी के सिवाय अन्य क्या हो सकता है? उसमें भी वस्त्र की चिंधी (लोरी) तो चपटी और जल्दी फट जाने वाली होती है। बारबार इसकी याचना भी करनी पड़े। इसलिये इस कार्य में बटे हुए सूत की डोरी ही अधिक उपयोगी हो सकती है। अन्यथा आठ प्रत वाली मुँहपत्ति कैसे बंध सकती है? खरतर गच्छीय साधु व्याख्यान के समय जो नासिका से मुखवस्त्रिका बांधते हैं, वे भी कानों में ही पिरोते हैं । परन्तु वे मुखवस्त्रिका ही के कपड़े से उसे बांधते हैं। जिससे वह आठ प्रत वाली नहीं रहती, इससे मुँह की वायु का वेग उतना कम नहीं हो सकता, जितना आठ प्रतवाली से होता है । अतएव आठ प्रत वाली मुखवस्त्रिका ही मुँह पर बांधनी उचित है। प्रमाण के लिए देखिए(१) भगवती सूत्र श० ६ उ० ३३ में जमालि के दीक्षाधिकार में ऐसा उल्लेख है कि - - "सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तिए मुहं बंधई" जो भी यह पाठ गृहस्थ नाई के सम्बन्ध का है, यह तो सिद्ध हो सकता है कि उस समय भी आठ प्रत वाली ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only तथापि इस से Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० शंका-समाधान ************************************** मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधी जाती थी। दूसरी बात यह भी मालूम होती है कि जब व्यावहारिक केश कर्तन के कार्य में थूक के कणों व मुँह के श्वास का बचाव करने के लिए भी आठ प्रत के बिना उद्देश्य सिद्धि नहीं हो सकता, तो वायु जैसे सूक्ष्म जीवों की रक्षा करने के लिये तो आठ प्रत वाली होनी ही चाहिये। (२) "आचार दिनकर" में लिखा है कि - वितस्तिश्च त्वाराङ्गलाश्च, एतच्चतुरस्र मुख-वस्त्रिका प्रमाणम्। तस्य समाचरणा वस्त्रस्यपालिं वामतो विधाय, ततः परं मञ्जनेन द्विगुणं कुर्यात्, पुनस्ततोपि द्विगणम्, ततः तिर्यग् भङ्गेनाष्टगुणं कुर्यात्। एक वेंत और चार अंगुल, यह चोकोन मुँहपत्ति का प्रमाण है। उसके आचरण करने योग्य बांधने की विधि-कपड़े की बायीं ओर से पाली बनाकर, उसके बाद मोड़ के दो पट करे, फिर उससे भी दो पट बाद तिरछी मोड़ के आठ गुण (आठ पट) करे। इसमें आठ प्रत वाली मुखवस्त्रिका बनाने की विधि बताई गई है। (३) मुखवस्त्रिका हाथ में रखने वाले भी आठ प्रत वाली ही रखते हैं। (४) मूर्तिपूजा के समय मुखकोष बांधा जाता है वह भी आठ प्रत वाला ही होता है। __ अतएव आठ प्रत वाली मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधना प्रामाणिक है और वह बिना डोरे के नहीं बांधी जा सकती है। जो लोग कानों के छिद्रों में पिरोकर बांधते हैं, उसमें खास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि विडम्बना तो यह है कि जिस व्यक्ति के कर्ण छेद नहीं किया हो, या छिद्र छोटे हों, तो दीक्षा लेने पर उसे फिर से कर्ण वेध इसी मुखवस्त्रिका के लिए करना पड़ता है। तभी वह इस क्रिया का पालन कर सकता है। *** ५१ बड़े खेद की बात है कि ये लोग कर्णवेध "छविच्छेद" (चर्मछेद) कर्म तो कर लेंगे परन्तु पक्षपात के वश होकर जिससे अधिक यत्ना हो सके, ऐसी आठ प्रत वाली मुखवस्त्रिका डोरे से मुँह पर नहीं बांधेंगे। क्या पक्ष व्यामोह की भी कुछ सीमा है? ऊपर के विचार से पाठक समझ सकते हैं कि ऐसी शङ्का करना ही वास्तव में व्यर्थ है । दूसरी बात शास्त्रकार तो प्रायः सामान्य विधि का ही निर्देश करते हैं। उसके प्रसिद्ध व्यवहारों का निर्देश तो वक्ताओं व श्रोताओं की बुद्धि पर ही आश्रित रहता है । स्थूल दृष्टि से विचार करने पर भी मालूम हो सकता है कि कई वस्तुएं ऐसी हैं जो अपने साथ उपयोग में आने वाली दूसरी वस्तु को चट मांग लेती हैं। जैसे - रजोहरण की फलियों को दंडी से बांधने के लिए डोरी की आवश्यकता रहती है और वह आगम प्रमाण के बिना भी बांधी जाती है। साध्वी के पहनने का चोलपट्टक (साड़ी) का विधान है किन्तु वह किससे और कैसे बांधना, इसका वर्णन नहीं होने पर भी उपयोग के अनुसार साधन लिये ही जाते हैं । जैसे पाजामा व लहेंगा कमर से बांधने के लिए चट नाड़े की आवश्यकता हो ही जाती है । यदि कोई इनका प्रमाण मांगे तो वह अज्ञानी समझा जाता है। इसी प्रकार मुखवस्त्रिका के लिए भी समझें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ** शंका-समाधान मुखवस्त्रिका जैन लिंग है। यद्यपि पूर्वार्द्ध में यह विषय सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है, फिर भी ज्ञानसुन्दरजी के मिथ्या आक्षेप का प्रतिकार करने के लिए कुछ पंक्तियां और भी लिखी जाती हैं। - यह बात तो स्पष्ट है कि श्री ज्ञानसुन्दरजी ने अपना पूर्व वैर अदा करने के लिये ही ये गालियां दी हैं । इस आवेग में आपने यह नहीं सोचा कि इसमें कहीं मेरी अज्ञता या शत्रुता तो प्रकट नहीं होगी ? जब कि श्री ज्ञानसुन्दरजी के सहयोगी ही मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधना जैन लिंग और नहीं बांधना कुलिंग स्वीकार कर रहे हैं, फिर इससे अधिक और क्या प्रमाण चाहिये ? देखिये वे प्रमाण - - ** " मुँहपत्ति चर्चा सार" पंन्यास रत्नविजयजी गणि रचित पृष्ठ ३६ पंक्ति ५ मुखवस्त्रिका किसलिए रक्खी जाती है इसके कारणों में तीसरा कारण:"साधुवेश - लिंगमाटे' इसमें मुखवस्त्रिका को साधु वेश - लिंग में स्वीकार किया है। आगे देखिये - " " प्रसंगे मुँहपत्ति बंधन ए कुलिंग नथी" पृष्ठ ३५ पंक्ति ५ 66 " बांधवाना प्रसंगे न बांधवामां आवे, ते कुलिंग" पृष्ठ ४१ पंक्ति १३ क्या ? अब भी ज्ञानसुन्दरजी अपने को स्वलिंगी तथा शुद्ध प्रवृत्ति वालों को कुलिंगी कहने की धृष्टता करेंगे? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि अगर वे तर्क करें कि इसमें तो प्रसंगोपात ही बांधने को सुलिंग कहा है, सारे दिन बांधने को सुलिंग कैसे कह सकते हैं? इसके समाधान में प्रेम पूर्वक निवेदन किया जाता है कि महाशय ! अभी तो मुँहपत्ति चर्चासार के कर्ता इस (मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधने के) विषय में निर्णय ही पूर्ण नहीं कर सके । वे स्वयं पृष्ठ ४० में लिखते हैं कि - " यद्यपि खास बांधवाना प्रसंगोनुं चोक्खुं नक्की तारण कदाच आपणे न काढी शकीए" ये शब्द ही विचार को अवकाश दे रहे हैं? जिन पर पहले विचार किया जा चुका है। दूसरा वे स्वयं कर - स्त्री हैं, इसलिए अपने मत की कुछ न कुछ तो बात रखेंगे ही। तीसरा मुँह की वायु से वायुकायादि जीवों की रक्षा मुखवस्त्रिका बांधे बिना नहीं हो सकती, इसलिये सदैव बांधना योग्य ही है, यह निस्संदेह समझें । ५३ *** महाशय ! आपके इन पण्डित रत्नविजयजी के लेख से तो आप और आपके साथी उनके बताये हुए सब प्रसंगों पर मुखवस्त्रिका नहीं बांधने के कारण अवश्य कुलिंगी ही हैं। अपने माननीय आचार्य आदि के वाक्यों से अब भी आप को परभव का कुछ भय खाना चाहिए और अपने पकड़े हुए मिथ्या हठ को तिलांजलि देकर मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधनी चाहिये । तथा अपने उपकारी सुसाधुओं की निन्दा करते कुछ शरमाना चाहिये । इसी में तुम्हारा हित है। * मुँहपत्ति चर्चासार पृष्ठ ४० में मुखवस्त्रिका बाँधने के प्रसंग बताये हैं, उसमें अन्तिम कारण में मृतक ने "विगेरे” इस प्रकार आदि शब्द आया है। यह भी अन्य प्रसंगों को स्थान देता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ शका-समाधान ** (१४) शंका- आपके समाज की ओर से प्रकाशित हुए कई ग्रन्थों में तीर्थंकर प्रभु के फोटो दिये गये हैं, उन फोटुओं में उनके मुँह पर मुखवस्त्रिका बताई गई है । तो क्या तीर्थंकर प्रभु भी मुँहपत्ति बांधते थे? समाधान - महाशय ! आपने जो कुछ भी शंका की है और श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी ऐसी ही बिना आगा पीछा सोचे द्वेष मिश्रित कुतर्क कर डाली है। उसके लिए आपको सरल बुद्धि से इस प्रकार समझना चाहिए कि - यद्यपि तीर्थंकर प्रभु वस्त्र मात्र नहीं रखते हैं और नग्न ही रहते हैं, तथापि वेही प्रभु अन्य साध्वादि को वस्त्रादि रखने का विधान फरमाते हैं. इसमें तो आपके व हमारे मतभेद है ही नहीं । वस्त्र के नहीं होने पर भी प्रभु अतिशय के प्रभाव से सर्व साधारण को वस्त्र युक्त जैसे ही दीखते थे, यह भी दोनों मानते हैं। फिर जब प्रभु साधु वेषयुक्त दिखाई देते हों, तो साधु वेष में तो मुखवस्त्रिका है ही । फिर आपकी यह तर्क कहाँ ठहर सकती है ? और इस तर्क से तो आपका कर-वस्त्र भी उड़ जाता है। क्या इसका भी कुछ भान है ? जो लोग तीर्थंकर प्रभु को नग्न मान कर भी उनकी मूर्ति के लंगोट कसते हैं और वीतराग अवस्था की (कायोत्सर्गयुक्त) कही * तीर्थंकर प्रभु को नग्न मानकर उनकी मूर्ति के कोट जाकेट पतलून कालर आदि पहनाकर उन्हें विदेशी जैसे बनाने वाले, और इस प्रकार मनमानी म मनाने में प्रभु भक्ति बतलाने वाले श्री ज्ञानसुन्दरजी को अनुचित रीति से की गई अपनी अनधिकार दस्तंदाजी के लिए लज्जित होना चाहिए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************************************** जाने वाली मूर्ति को मुकुट कुंडलादि लगाकर राजा जैसी बना देते हैं। क्या वे लोग इस प्रकार के प्रश्न करने के अधिकारी है? यहाँ पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिये कि - तीर्थंकर प्रभु यद्यपि मुखवस्त्रिका आदि नहीं रखते थे, तथापि वे निर्वद्य भाषा ही बोलते थे। प्रभु ने कभी सावध भाषा बोली ही नहीं, ऐसा खास आचारांग सूत्र से पाया जाता है। अपने अतिशय प्रभाव के कारण सर्व साधारण की दृष्टि में वे साधु वेष युक्त दृष्टिगत होते थे। इसलिए अगर उन प्रभु का चित्र मुखवस्त्रिका युक्त दिया गया तो क्या, अनुचित है? हम ऐसे कई चित्र मूर्तिपूजकों की ओर के बता सकते हैं, जिनमें उन्होंने प्रभु को वस्त्र-युक्त चित्रण किया है। खासकर उसमें चन्दनबालाजी के दान देने के समय का चित्र तो प्रत्यक्ष इस बात को स्पष्ट कर रहा है। ऐसे एक नहीं अनेकों चित्र हैं*। फिर ज्ञानसुन्दरजी को यह कुतर्क करने की बुद्धि क्यों सूझी? केवल वैर चुकाने के लिये ही क्या? ★ सिर्फ इन्द्र द्वारा अर्पित खन्धे पर रखा हुवा वस्त्र ही रहता है। * ज्ञानसुन्दरजी! अपना धन्य भाग्य समझो कि तुम्हारी यह कुतर्क किसी दिगम्बर के देखने में नहीं आई। अन्यथा ऐसे कल्पित चित्रों के लिए जब वे आप से जवाब तलब करेंगे, तब तो आपको बगलें ही झांकनी पड़ेंगी। क्योंकि आपने नग्न प्रभु को वस्त्र पहिनाये हैं। यदि वास्तव में देखा जाय तो इन ज्ञानसुन्दरजी जैसे फक्कड़ों ने ही जैन समाज को बरबाद किया है। यदि ये मूर्ति पर व्यर्थ के मन कल्पित आडम्बर नहीं मढते तो दिगम्बर-श्वेताम्बर के ये झगड़े भी उपस्थित नहीं होते और करोड़ों रुपयों का चूर्ण नहीं होता। बस यह करामात इन कुल गुरुओं की ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ शंका-समाधान ************************************** (१५) शंका - मुँह पर बाँधने के कारण मुखवस्त्रिका थूक से गीली हो जाती है, जिससे उसमें सम्मूर्छिम जीव उत्पन्न हो जाते हैं और उनकी हिंसा भी होती है। ऐसी हालत में यह क्रिया किस प्रकार उचित कही जा सकती है? समाधान - मुँहपत्ति में थूक से सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति बताना भी शास्त्र ज्ञान की अपूर्णता सिद्ध करता है। सूत्रों में कहीं भी थूक से सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होना नहीं कहा है। देखिये - पन्नवणा सूत्र में सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति के चौदह स्थान बताये हैं, जैसे - उच्चारेसु वा १, पासवणेसु वा २, खेलेसु वा ३, संघाणेसु वा ४, वंतेसु वा ५, पित्तेसु वा ६, पूइएसु वा ७, सोणिएसु वा ८, सुक्केसु वा ६, सुक्कपोग्गल परिसाडिएसु वा १०, विगय जीवकलेवरेसु वा ११, इत्थीपुरिस संजोएसु वा १२, नगर निद्धमणेसु वा १३ और सव्वेसुचेव असुइ ठाणेसु वा १४। अर्थ - (१) विष्ठा में, (२) पेशाब में, (३) खेकार (बलगम) में, (४) नाक के श्लेष्म (मल) में, (५) वमन में, (६) पित्त में, (७) पीप में, (८) रक्त में, (6) वीर्य में, (१०) वीर्य के सूखे हुए पुद्गलों के गीले होने पर, (११) शव में, (१२) मैथुन में, (१३) शहर की मोरी में और (१४) सब अशुचि के स्थान में। इन चौदह स्थानों में यूँक से जीवोत्पत्ति होने का तो कोई स्थान ही नहीं है। फिर यह नूतन सिद्धान्त हाथ में वस्त्र रखने वालों ने न जाने किस शास्त्र में से घड़ निकाला है? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ** ******************************** **** ___ महानुभाव! अगर कुछ देर के लिए "तुष्यतु दुर्जनः' इस न्याय के अनुसार आपकी यह दलील मान भी ली जाय, तो यह तो आप ही पर लागू होती है। क्योंकि आपकी समाज के बहुत से (खरतर गच्छादि के) मुनि व्याख्यान के समय में नाक और मुँह पर वस्त्र बांधते हैं और घण्टों तक जोर जोर से बोलते हैं। इससे उनकी वह मुखवस्त्रिका अधिक गीली हो ही जाती है। क्योंकि वे तो मुँह से चिपकाकर बाँधते हैं और आपके इस नूतन सिद्धान्त के अनुसार उसमें जीवोत्पत्ति भी होती ही होगी? इससे तो वे साधु असंख्य सम्मूर्छिम जीवों के घातक होते ही होंगे? क्योंकि यह तो आप लोगों का ही अभिमत सिद्धान्त है। हम तो मानते हैं कि वास्तव में सिद्धान्त के अनुसार मुँह पर लगी हुई मुँहपत्ति में यूँक से सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती ही नहीं है, यह तो केवल हमारे इन बन्धुओं की निष्फल चेष्टा ही है। (१६) शंका - श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने अपनी पुस्तक में एक जगह लिखा है कि - जब स्थानकवासियों से पूछा जाता है कि तुम मुखवस्त्रिका क्यों बाँधते हो, तब वे कहते हैं कि हम से उपयोग नहीं रहता इसलिये, तो क्या यह बात सत्य है? समाधान - श्री ज्ञानसुन्दरजी की बातों में सच्चाई का तो कहना ही क्या है? इन्हें तो किसी तरह अपना अभीष्ट साधना है चाहें वह उचित हो, या अनुचित? जब कि मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने के विषय में साधुमार्गियों के पास काफी प्रमाण हैं, तब वे केवल ऐसी लचर दलील ही उत्तर में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ शंका-समाधान ************************************** देवें, यह कैसे हो सकता है? और जो उपयोगवन्त होने का दम भरते हैं उनकी हालत तो जरा तपासो, जिससे मालूम हो जाय कि ये कितने अंशों में सत्य हैं। पाठको! आप इतना तो निश्चय समझें कि हाथ में वस्त्र रखने वाले, मुँह पर बाँधने वालों के समान यतना नहीं रखते, और वे अधिकांश खुले मुँह ही बोलते हैं। इस लेखक ने स्वयं इनके बड़े बड़े आचार्यों को देखा है कि जो हाथ में वस्त्र होते हुए भी खुले मुँह बातों के सपाटे मारते थे। कितने ही ऐसे महाशय (साधु) भी देखे गये हैं कि जो जहाँ बैठे बैठे या खड़े खड़े बातें कर रहे थे, उनके हाथ में मुखवस्त्रिका नहीं थी, अपितु उनसे कुछ दूर रक्खी हुई थी ★ हमारे प्रेमी पाठक एवं निष्पक्ष मूर्ति-पूजक बन्धु भी इन बातों को भली प्रकार जानते होंगे। अब हम विशेष नहीं लिख कर केवल एक बने हुए प्रसंग का प्रमाण देकर इस विषय को पूर्ण करते हैं। ___ "मुम्बई समाचार" दैनिक मंगलवार, ता० ८ अगस्त सन् १९३४ के पृष्ठ १५ में “जैन समाज सावधान' शीर्षक लेख से श्री विजयनीतिसूरिजी के प्रशिष्य पं० कल्याणविजयजी लिखते हैं: ★ सम्वत् १९६६ के श्रावण की बात है जब यह लेखक अपने चार स्वधर्मी बन्धुओं के साथ रेलवे में जोन टिकिट से अजमेर गया था तब स्वयं ज्ञानसुन्दरजी भी वहीं थे। जब हम ज्ञानसुन्दरजी के पास गये तो वे सोये हुए थे। हमें देख कर उठे और मुखवस्त्रिका की इधर उधर खोज की, नहीं मिलने पर ओढने की चद्दर का पल्ला मुँह पर लगा कर बात करने लगे। यह है सुन्दरजी की उपयोग रखने की तत्परता। - ले० आवृत्ति २ के लिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि "नहीं बाँधनार ने केटलूँ नुकसान थाय छे तेनो ताजो बनेलो दाखलो जनतानी आगल मूकुछं, अमदाबाद शहरमां अमुक उपाश्रय मां स्थीरता करता अमुक आचार्य महाराज व्याख्यान नी पीठ पर बेसी व्याख्यान खूब जोरदार करी रह्या हता, जुस्सा मां, चालता व्याख्यान मां- 'मक्षीका मुखमा प्रवेश कर्यो' प्रवेश करतां व्याख्यान नो ध्वनि अटके छे, अने वमन नो ध्वनि झलके छे. भाइओ! विचार करजो, वीतरागना वचनामृत नुं पान करता श्रोताओ शुं सांभले छे ? वमन के ? आ प्रताप कोनो ? व्याख्यान मां मुंहपत्ति नहीं बांधनाराओनो! बांधनाराओ ना मुखमा मक्षिका प्रवेश करी शके के ? एवा अनेक कारणे शास्त्रकार महाराजे मुंहपत्ति बांधी व्याख्यानादिक करवा भलामण करेल छे." *** ५६ *** पर इस विषय में और भी सत्य घटनाएँ दी जा सकती है, पाठक स्वयं अनुभवशील होंगे, अत: निबन्ध का कलेवर व्यर्थ बढ़ाकर उपरोक्त घटना ही पर दो शब्द लिख कर विषय पूर्ण करता हूँ । हाथ में रहने वाली जिस मुखवस्त्रिका से ऐसे अनर्थ हों, व मक्खी जैसे प्राणी की भी जो रक्षा नहीं कर सकती, वह वायुकाय जैसी सूक्ष्म काय जीवों की रक्षा किस प्रकार कर सकती है ? फिर प्रसंग भी कैसा ? व्याख्यान का ! जहाँ सैकड़ों मनुष्यों की मौजूदगी होगी, वहाँ भी ये लोग इस प्रकार उपयोग का आदर्श सिद्ध करते हैं, तब बाद में या अकेले में अथवा विरल जनों में तो कहना ही क्या? उस समय इस कर - वस्त्र का क्या उपयोग होता होगा? और कितनी अयतना होती होगी? यह तो ज्ञानी जाने । इससे साफ जाहिर होता है कि जो उपयोग का व्यर्थ बहाना कर मुखवस्त्रिका नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ** ***** बांधते हैं, वे जिन वचनों की उपेक्षा ( बेदरकारी) एवं जीवों की विराधना करने वाले हैं। असलियत में इस हाथ में रहने वाले वस्त्र को तो मुंहपत्ति नहीं कह कर "मुंह पोंछना" कहा जाय तो उपयुक्त होगा, क्योंकि ये लोग पानी पी लेने पर, या पसीना हो जाने पर इसी से मुँह पोंछते देखे गये हैं । मुखवस्त्रिका तो केवल नाम मात्र की ( कहने के लिए) ही है। वास्तव में तो उसका दुरुपयोग ही होता है । (१७) शंका श्री ज्ञानसुन्दरजी ने तो इतिहास से भी मुखस्त्रिका को हाथ में रखना सिद्ध किया है । क्या आप भी ऐसा प्रमाण दे सकते हैं? - शंका-समाधान समाधान भाई ! आप यह तो जानते ही होंगे कि जैन शासन में जो शिथिलता घुसी है, वह आजकल की नहीं है, बल्कि सैंकड़ों हजारों वर्षों से है और सप्रमाण सिद्ध भी है । (जिसके लिए एक स्वतन्त्र निबन्ध लिखने का विचार है) फिर उसमें जो कुछ हो वह थोड़ा ही है । फिर भी हम यह कह सकते हैं कि चाहे थोड़ी संख्या ही हो किन्तु सुविहितों की सत्ता भी अवश्य थी, और मुखवस्त्रिका के मुँह पर बाँधने की प्रवृत्ति भी थी। परन्तु ज्यों ज्यों शिथिलाचार बढ़ता गया त्यों त्यों इसमें छूट होती गई, व अन्त में मुँह से उतर ही पड़ी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि इन लोगों के ग्रन्थ तो कितने ही प्रसंगों पर बाँधना बताते हैं और ये कितने प्रसंगों पर बांधते हैं ? मतलब यह कि जब शिथिलाचार का प्रवेश हुआ तब इस मुखवस्त्रिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************************************** को पूर्वोक्त ७-८ प्रसंगों में बाँधने का ही मान्य रख कर बाकी के समय नहीं बाँधने का निर्णय किया गया और जब शिथिलाचार अधिक बढ़ा तो केवल व्याख्यान के प्रसंग पर ही बाँधना मान कर अन्य समय के लिए उपेक्षा की गई और अब तो अधिकांश बाँधने में ही मिथ्यात्व एवं पाप मानने लगे हैं। यह सब शिथिलाचार का ही प्रभाव है। अगर समय ने पल्टा खाया, तो सम्भव है फिर मुखवस्त्रिका को अपना पूर्व स्थान इन लोगों से प्राप्त हो जाय। हमें इतिहास का प्रमाण खोजने की आवश्यकता ही क्या है? इन्हीं के ग्रन्थ बता रहे हैं कि भुवन भानु केवली, हरिबल मच्छी, हीरविजयसूरि आदि के समय मुखवस्त्रिका बाँधी जाती थी और मुँहपत्ति चर्चासार के चित्र भी बता रहे हैं कि श्रीपाल राजा के समय भी मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधी जाती थी। फिर हमें व्यर्थ के कष्ट उठाने की क्या जरूरत है? (१८) ज्ञानसुन्दरजी अर्धमागधी कोष को देखकर तो भड़क ही उठे हैं और अपनी विकृत वाणी के कुछ छींटे जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान्, भारत रत्न शतावधानी पण्डित मुनिराज श्री रत्नचन्द्रजी महाराज पर भी डाले हैं। परन्तु सुन्दरजी को उत्तरासंग का वह चित्र देखकर भड़कने की आवश्यकता नहीं है। इससे तो इनकी योग्यता और हठाग्रहिता का ठीक ठीक पता चल जाता है। अगर सुन्दरजी महाशय शान्त भाव से विचार करते तो इन्हें ऐसी कुतर्क करने की बुद्धि नहीं होती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ *** शका - समाधान *** अब हम इन्हें सुझाते हैं कि आप जरा सत् गुरुओं की शरण लेकर सिद्धान्तों की सद्बुद्धि से स्वाध्याय करें और फिर तर्क उठाने की हिम्मत कीजिये । देखिये, निम्न प्रमाण क्या बताते हैं - (१) भगवती सूत्रानुसार मुँह पर वस्त्र रख कर बोली हुई भाषा ही निरवद्य भाषा हो सकती है। और भगवती, उपाशकदशांग, औपपातिक आदि सूत्रों में राजाओं, श्रावकों आदि के प्रभु वन्दन करने को जाने का वर्णन आया है । वहाँ वे उत्तरासंग करके गये थे, ऐसा कथन भी है। उन्होंने धर्मोपदेश भी श्रवण किया और प्रश्नोत्तर भी हुए थे, तो क्या वे ऐसे प्रसंग में खुले मुँह से बोले थे ? नहीं । उन्होंने मुँह पर वस्त्र रखकर ही शब्दोच्चार किया था। क्योंकि खुले मुँह बोलना तो सावद्य भाषा है, जो भगवती सूत्र के प्रमाण से सिद्ध होकर आपको भी मान्य है । इसलिये सिद्ध हुवा कि वे श्रावकादि वस्त्र से मुँह की यतना करके निरवद्य भाषा ही बोले थे । अब यहाँ प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि क्या वह वस्त्र मुखवस्त्रिका थी या उत्तरासंग ? तो इसका सहज ही उत्तर है कि मुखवस्त्रिका नहीं, वहाँ उत्तरासंग ही उपयुक्त होता है । क्योंकि वहाँ सामायिकादि विशेष धार्मिक करणी करने का कथन नहीं है। इसलिए उत्तरासंग से ही मुँह की यतना करना सिद्ध होता है । श्री ज्ञानसुन्दरजी उत्तरासंग को केवल शोभा के लिए ही रखना बताते हैं, पर यह बात भी इनकी एकान्त होने से ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ शोभा का कोई खास कारण नहीं था। हां, शोभा तो उन लोगों ने घर से प्रस्थान करते समय अवश्य की थी, पर जहाँ समवसरण दृष्टिगत हुआ कि फौरन पुष्पमालाएँ उतार कर अलग डाल दी, जूते खोल डाले, छत्र उतार दिये, मुँह का पान थूक दिया और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि वस्त्र से उत्तरासंग कर दोनों हाथों को जोड़ कर समवसरण में प्रविष्ट हुए। अतएव शोभा करने का कहना अनुचित सिद्ध हुआ । दूसरा उत्तरासंग से शोभा का वहाँ कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जहाँ समवसरण दृष्टिगोचर हुआ कि त्वरित शोभावर्द्धक वस्तुएँ दूर कीं और फिर उत्तरासंग धारण किया। यदि उत्तरासंग से शोभा बढ़ाना ही अभीष्ट होता तो उन्हें घर से रवाना होते समय अन्य शोभावर्द्धक वस्तुओं के साथ साथ उत्तरासंग भी करना चाहिये था । पर ऐसा कथन तो है ही नहीं। ६३ अतएव सिद्ध हुवा कि उत्तरासंग का मुँह की यत्ना में उपयोग करना प्रमाणिक और शास्त्र सम्मत है । (२) हमारे सुन्दरजी की समाज के कर्पूरविजयजी के शिष्य पुण्यविजयजी तत् शिष्य प्रधानविजयजी लिखित और दानमल शंकरदान नाहटा, बीकानेर द्वारा प्रकाशित "जिनराज भक्ति आदर्श" में लिखा है कि - " देरासर के अन्दर प्रवेश करने के समय से लेकर निकलने के वक्त तक उघाड़े मुंह से बोलना ही निषिद्ध है । अष्ट पट मुखकोश और " उत्तरासन" का किनारा इसी के लिए ही है, किन्तु इस तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता है । " ये दो प्रमाण ज्ञानसुन्दरजी के नेत्र खोलने में पर्याप्त होंगे, खोज करने पर और भी अनेक प्रमाण इस विषय के पुष्ट करने वाले मिल सकते हैं परन्तु इतने प्रयत्न से ही हम ज्ञानसुन्दरजी से यह अवश्य कहेंगे कि महात्मन्! व्यर्थ की कुतर्के करना छोड़िये और सरल बुद्धि से विचारिये तो आपको यह विश्वास होगा कि उत्तरासंग रखने का मुख्य मतलब धार्मिक प्रवृत्ति में निरवद्य भाषा बोलने के उपयोग में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ शंका-समाधान ************************************** आने का है। केवल शोभा के लिये ही नहीं। और इस प्रकार भारत रत्न, समाज के चमकते हुए सितारे श्रीमान् शतावधानीजी का कथन सत्य है। लेकिन हमें तो यह अँचता है कि सुन्दरजी की कुतर्क केवल द्वेष बुद्धियुक्त ही है। जिज्ञासा की झलक तो उसमें है ही नहीं। (१६) शंका - वायुकाय के जीव आठ फरसी हैं और भाषा के पुद्गल चौ फरसी हैं। अतएव भाषा के स्वल्प शक्ति वाले पुद्गल द्विगुण शक्ति वाले वायुकाय के जीवों की हिंसा किस प्रकार कर सकते हैं? समाधान - यह भी शंका अनभिज्ञता एवं हठाग्रह को सूचित करती है। ऐसी ही कुतर्क ज्ञानसुन्दरजी ने भी की है। ज्ञानसुन्दरजी यह भूले हुए हैं कि एकेन्द्रिय तेजस्काय के जीव किस प्रकार पंचेन्द्रिय को भस्म कर देते हैं। अब हम ज्ञानसुन्दरजी का योग्य इलाज करने के लिए उन्हें कहते हैं कि आप अन्य कहीं नहीं भटक कर आपही के समाज के आगमोद्धारक, श्री सागरानन्द सूरिजी (जो कि मुखवस्त्रिका के कट्टर विरोधी हैं) के निम्न वाक्य जो प्रतिकार समिति की मासिक पत्रिका 'जैन सत्य प्रकाश वर्ष १ अंक ७ में मुद्रित हो चुके हैं, जरा ध्यान पूर्वक पढ़िये, आपका अज्ञानान्धकार नाश हो जायगाः ‘एम नहिं कहेवू के भाषा वर्गणाना पुद्गलो चउ फरसी होवा थी आठ स्पर्श वाला वाउकाय विगेरे नी विराधना केम करी शके? केम के शब्द वर्गणा ना पुद्गलो जे भाषापणे परिणमे छे ते जेओ के चउस्पर्शी छे, तोपण तेवी रीते परिणमवू नाभी थी उठी ने, कोष्ठमां हणाई ने वर्ण स्थानों मां फरसी ने निकलता पवन द्वारा एज बने छे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि अने ए बात बोलती वखत मोढा आगल राखेला हाथ के वस्त्रना स्पर्श के चलनादि थी अनुभव सिद्ध छे, “तो तेवी रीते भाषानी वखते निकलेलो वायु बाहर रहेला सचित वाउकायनी विराधना करे मां शंकाने स्थान होई शके नहीं" ए बात पण शास्त्र सिद्ध छे के शरीर मां रहेलो वायु बाहर ना वायु ने शस्त्र रूपं छे x x x आदि . ' इसके सिवाय और भी प्रमाण जो पूर्वार्द्ध में दिये गये हैं, आपकी व ज्ञानसुन्दरजी की शंका का मूलोच्छेद करने में पर्याप्त हैं। वे (20) श्री ज्ञानसुन्दरजी ने मुखवस्त्रिका हाथ में रखने का लाभ बताते हुए उसकी प्रतिलेखना के समय विशुद्ध भावना होने की जो डींग मारी है, उससे हाथ में रखने या मुँह पर बाँधने का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। क्योंकि प्रतिलेखना तो मुँह पर बाँधते हुए भी करनी पड़ती है । अतएव बाँधने का कोई सवाल इसमें उत्पन्न नहीं हो सकता । तथापि इनका यह लाभ - निर्देश- कथन केवल वाणी - विलास ही है, और इनकी इस प्रतिलेखन क्रिया में ऐसी भावनाएँ मुखवस्त्रिका द्वारा हों, यह कथन वास्तव में हास्यास्पद एवं प्रमाण रहित है। ६५ *** क्या मुखवस्त्रिका अपने आप इनके हृदय में ऐसी भावनाएँ उत्पन्न कर देती है ? या इन लोगों के कान में कह देती है ? कदापि नहीं। इससे तो बेहतर यह है कि एक ऐसा नियम ही बना दिया जाय, कि जिससे दिन में इतनी बार या अमुक अमुक समय इन भावनाओं का स्मरण अनिवार्य होता रहे । यदि प्रतिलेखना का यही उद्देश्य है तो सुन्दरजी को रजोहरण, वस्त्र, पात्र, दण्ड आदि के प्रतिलेखन समय की भावनाएँ भी जाहिर कर देनी चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शंका-समाधान ************** ************************ वास्तव में यह भावनाओं का खाली बहाना मात्र ही है। क्या, ज्ञानसुन्दरजी! यह बताने का कष्ट स्वीकारेंगे कि बिना मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना के ऐसी भावनाएँ हो ही नहीं सकती? . . महाशय! साधु पुरुषों के तो स्वभाव से ही ऐसी भावनाएँ होती हैं। और विशेष कर ध्यान प्रतिक्रमणादि प्रसंग पर प्रकारान्तर से ऐसी भावनाएँ कही व विचारी भी जाती है। फिर खाली मुँहपत्ति मुँह पर नहीं बाँधने के लिए ही भावनाओं का बहाना लेना, मिथ्या नहीं तो क्या है?. सुन्दरजी कहते हैं मूर्तिपूजक प्रत्येक कार्य में मुँहपत्ति प्रतिलेखन द्वारा अशुभ भावनाओं को हटाकर शुभ भावना द्वारा आत्म विशुद्धि करके ही क्रिया क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। सुन्दरजी अपने इन शब्दों से भोले लोगों को भले ही भ्रम में डाल दें, परन्तु जो लोग समझदार हैं और जो इनसे अधिक परिचय रखते हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि इनकी यह प्रतिलेखना किस प्रकार होती है? चट मुंहपत्ति को फैलाकर इधर उधर हाथों पर फिरा, कुछ सैकण्डों में ही इस कार्य की पूर्णाहुति कर दी जाती है। ऐसी हालत में इनकी भावनाओं का तो कहना ही क्या? यहाँ तो खाली हाथी के दाँत बताने के ही हैं। ऐसी नित्य क्रिया द्वारा अशुद्ध भावनाओं को हटा कर शुद्ध भावना करने वाले सुन्दरजी महाराज का शब्द-माधुर्य तो देखिये, जो कमर कस कर साधुमार्गी समाज की निंदा करने में ही डटे हुए हैं। और कुलिंगी, निह्नव, उत्सूत्र भाषी, शासन भंजक, नास्तिक आदि तुच्छ शब्दों की वर्षा कर रहे हैं। क्या, शुभ भावनाओं का यही ज्वलंत प्रमाण है? क्या मुखवस्त्रिका को मुँह से उतार कर हाथ में लेने पर सुन्दरजी ने उससे ऐसी ही भावनाएँ प्राप्त की हैं? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि को सुन्दर महाशयजी ! जिस क्रिया की भावना विशुद्धि भी बुद्धि शुद्ध कर देती हैं, उस क्रिया को यत्न से करने वालों को गालियाँ देना ही तो आपकी भावना विशुद्धि प्रमाणित हो रही है। श्री ६७ ज्ञानसुन्दरजी को यह मालूम नहीं है कि जिस समाज में - बड़े बड़े और उच्च चारित्रवान् महात्मा हो गये हैं और वर्तमान में मौजूद हैं, जिनके उच्च चारित्र एवं त्याग वैराग्य की प्रशंसा मूर्तिपूजक समाज के विद्वान् भी कर रहे हैं और जिनके लिये आदर सूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उन सच्चे वीर पुत्रों की निंदा करना, शासन शत्रुता है । ऐसे कृत्यों का फल इन्हें अवश्य भोगना पड़ेगा । सुन्दरजी महाराज! अधिक क्या बताऊँ, आपकी योग्यता और मरुधर केशरीपन तो “जैन जाति निर्णय समीक्षा " जो "मुनि श्री : मग्नसागरजी " लिखित एवं खरतरगच्छीय जैन संघ द्वारा प्रकाशित है, उससे बखूबी जाहिर होती है। अब कृपा कर आप अपनी भाषा पर काबू कीजिये अन्यथा इसी " जैन जाति निर्णय समीक्षा" के आधार पर एक 'गयवर पुराण' लिख कर आपकी सेवा में समर्पित करना पड़ेगा । (२१) ज्ञानसुन्दरजी महाराज ने अपनी कृति के पोथे में (जो अभी प्रकाशित हुवा है) स्थानकवासी समाज के साधुओं और लोंकागच्छ के यतियों व तेरह पन्थियों के कल्पित् फोटो देकर जो कुविकल्प किया है, वह वास्तव में इनकी हृदय कलुषितता का नग्न ताण्डव है । क्योंकि जिन शब्दों का इन्होंने प्रयोग किया है वे तो केवल कल्पित और द्वेष पूर्ण ही हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ************************************** __ इन्हें मालूम नहीं है कि गत 'अजमेर साधु सम्मेलन' में देशी परदेशी ही नहीं, पर साधुमार्गी जैन संसार के लगभग सभी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध प्रसिद्ध विद्वान् मुनि महात्मा विद्यमान थे और वहाँ पारस्परिक प्रेम का कितना जीता जागता दृश्य उपस्थित हुआ था उसके विरुद्ध जो सुन्दरजी ने अपने उदरस्थ विष को उगलने के लिये कलम कृपाण चलाई है, वह वास्तव में इनके नाम को निरर्थक ही सिद्ध करती है। इस तरह किसी भी समाज का अनादर करना सभ्यता से बाहर है। वैसे तो हम भी मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के खरतर, तपा, त्रिस्तुतिक, चतुःस्तुतिक, श्वेत वस्त्रधारी, पीताम्बरी, व्याख्यान में मुँहपत्ति बाँधने वाले और साम्वत्सरिक विरोध वाले आदिकों के चित्र बनवा कर एक से दूसरे को मिथ्यात्वी, भ्रष्टाचारी, उत्सूत्र भाषी, निह्नव आदि कहला सकते हैं और वह भी प्रमाणों सहित, पर हम इस तुच्छ प्रवृत्ति को ‘सुन्दरजी' महाशय के ही योग्य समझते हैं और इन्हीं के अर्पण करते हैं, जिससे सुन्दरजी की असुन्दरता और बढ़े व मुख उज्ज्वल हो। इसके सिवाय हम अपनी ओर से अभी कुछ भी कहना नहीं चाहते। यदि इन लोगों की यही रफ्तार रही तो हमें भी समय पाकर “शाठ्यं । प्रतिशाठ्यं कुर्यात्" की नीति को अपनाना पड़ेगा। (२२) शंका - जैनागम से किसी भी जैन साधु के मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधी रखने का उदाहरण आप दिखा सकते हैं क्या? समाधान - महाशय! पूर्वोक्त प्रकरणों से यद्यपि आपकी शंका निर्मूल हो जाती है, तथापि विशेष समाधान के लिए और देखिये - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************** ************************ षष्टमाङ्ग श्री ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र' के १४ वें अध्ययन में लिखा है कि तेतली प्रधान की स्त्री अपने पति को अप्रिय हो गई, समयान्तर में कुछ क्रोध शान्त हो जाने पर पति की आज्ञा से, दान देते हुए समय बिताने लगी। उस समय तेतलीपुर में आये हुए सुव्रताजी साध्वीजी का एक सिंघाडा नगर में भिक्षा के लिये निकला और अनेक घरों में घूमते हुए तेतली प्रधान के घर में प्रवेश किया। तेतली प्रधान की उस अप्रिय पत्नी पोट्टिला ने उन साध्वीजी को आदर सहित अशनादि प्रतिलाभ कर, उनसे पूछने लगी कि आप अनेक घरों में भ्रमण करती हैं, कहीं ऐसी जड़ी बूंटी या मन्त्रादि उपाय देखा हो तो बताइये कि जिसके प्रयोग से मैं पुनः अपने पति की प्रिय बन जाऊँ। इस पर उन महासितयों ने अपने दोनों कानों में दोनों हाथों की अंगुलिये लगा कर कहा कि अहो देवानुप्रिय! हमें इस प्रकार के शब्द कानों से भी सुनना नहीं कल्पता है फिर ऐसा मार्ग दिखाना तो रहा ही कहाँ? उक्त कथन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि जब उन साध्वीजी ने दोनों हाथों की अंगुलिये दोनों कानों में डाल कर (कान बंद कर) जो शब्द कहे हैं, उस समय उनके मुँह पर मुखवस्त्रिका अवश्य बंधी हुई थी ऐसा सिद्ध होता है, क्योंकि हाथ तो दोनों उनके कान के लगे हुए थे और खुले मुँह बोलना तो मूर्तिपूजक लोग भी स्वीकार नहीं करते, फिर बिना बाँधे ऐसा हो ही कैसे सकता है? फिर देखिये - निरयालिका सूत्र में सोमिल तापस का अधिकार है, वह जैन धर्म से निकल कर तापस हुआ था उसने भी काष्ट की मुखवस्त्रिका मुंह पर बाँधी थी। इससे भी यही सिद्ध होता है कि उस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार *** समय मुखवस्त्रिका मुँह पर ही बाँधी जाती थी, यद्यपि सोमिल जैन धर्म छोड़ चुका था और इसी से उसने जैन मान्यता के विरुद्ध वस्त्र की जगह काष्ट को मुँह पर बांधा, पर बाँधना तो सिद्ध है ही । यदि उस समय बाँधने की पद्धति नहीं होती तो वह क्यों बाँधता ? आचारांगादि आगमों में जहाँ जहाँ मुखवस्त्रिका शब्द आया है, वहाँ वहाँ मुँह पर बाँधने का वस्त्र विशेष ही अर्थ होता है, जिसे हम प्रथम सिद्ध कर आये हैं। फिर अब शंका की बात ही नहीं रह सकती । ७० (२३) उपसंहार पूर्वोक्त प्रकरणों में मुखवस्त्रिका के उद्देश्य तथा बाँधने और नहीं बाँधने से होने वाले हानि लाभ स्पष्ट बता दिये गये हैं, जिनका संक्षिप्त सार इस प्रकार है - ― (१) मुखवस्त्रिका वायुकायादि जीवों के रक्षार्थ एवं जैन सांधुओं की पहिचान के लिए ही मुँह पर धारण की जाती है । (२) मुँह की वायु से बाहर के वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है। (३) मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने से ही दोनों उद्देश्य बराबर सध सकते हैं। नहीं बाँधने से जैन लिंग और जीव रक्षा का पूर्ण पालन नहीं हो सकता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************************* ********** ७१ मुखवस्त्रिका सिद्धि **************** (४) शास्त्रों के नाम से मुखवस्त्रिका हाथ में रखना, प्रमाण शून्य और प्रत्यक्ष झूठ है। (५) मुखवस्त्रिका बाँधने में थूक से असंख्य समूर्छिम जीवों की उत्पत्ति बताना भी शास्त्रीय अनभिज्ञता एवं मूर्खता है और साथ ही उत्सूत्र प्ररूपणा भी। (६) मुखवस्त्रिका केवल मुँह पर बाँधने के लिए है न कि शरीर प्रमार्जन के लिए। (७) खुले मुँह से बोली हुई भाषा सावध भाषा है। मुखवस्त्रिका मुँह पर नहीं बाँध कर हाथ में रखने वाले अधिकांश खुले मुँह बोलते हैं और मुखवस्त्रिका का दुरुपयोग करते हैं। (८) ऐतिहासिक प्रमाणों से भी मुखवस्त्रिका का मुँह पर बाँधना ही सिद्ध होता है। (8) जीवरक्षा और जैन साधु के लिंग के लिए (आवश्यक कार्यों के सिवाय) सदैव मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधना आवश्यक है। (१०) मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने के विरुद्ध की गई शंकाएँ केवल कुतर्के ही हैं। सत्यांश का तो नाम मात्र भी नहीं है। इस प्रकार हम अपने इस छोटे से निबन्ध में मुखवस्त्रिका का मुँह पर बाँधना अनेक प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर, उसके विरोध में उठाई हुई शंकाओं को निर्मूल कर चुके हैं। यदि हमारे प्रेमी पाठक इस छोटे से निबन्ध को कम से कम एक बार भी ध्यान पूर्वक शान्त चित्त से अवलोकन करेंगे, तो उन्हें यह अवश्य विश्वास होगा कि हमारे मूर्तिपूजक भाई और हमारी समाज से तिरस्कार पाये हुए ‘ज्ञानसुन्दरजी' जो हम पर आक्षेप एवं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ **** उपसंहार ********************************** आक्रमण कर रहे हैं, वे केवल द्वेष पोषण के लिए और साथ में शिथिलाचार को शास्त्र सम्मत सिद्ध करने के लिए ही हैं। इन्हें या तो अपने सामाजिक ग्रन्थों का ज्ञान नहीं है या ये जान बूझकर अभिनिवेश की प्रबलता से अपने हठ को छोड़ते नहीं हैं। परन्तु, हाँ मिथ्याभिमान! तुझे कुछ भी विचार नहीं होता। अरे! तुझे कम से कम इतना तो ध्यान रखना चाहिए कि मैं पतित पावन जैन धर्म पर से तो अपनी माया हटा लूँ और साधु एवं पंचमहाव्रतधारी, वीर पुत्र एवं मरुधर केशरी कहे जाने वाले व्यक्तियों को तो अपनी जाल से मुक्त करूँ। देख! तेरे ही कारण आज जैन साधु नामधारी लोग सिद्धान्त सम्मत विधान को जानते हुए भी झूठा कह रहे हैं। देख! यदि मेरी सलाह माने, तो मैं तुझे यही कहूँगा कि अब बंद कर, बहुत हो चुका, जैन समाज पर से तूं अपना पञ्जा हठा ले, तेरे लिए और भी बहुत से स्थान हैं। सारा संसार पड़ा है। यदि अब भी तू नहीं समझेगा तो भविष्य में न जाने क्या होगा? सुन्दरजी जैसे सुन्दर हृदयी (?) लोगों के कारण समाज की शान्ति भयभीत है। प्रिय पाठक वृन्द! यदि आपको मेरे इतने लेखों पर से कुछ पूछना हो, या मेरे दिये प्रमाणों में सन्देह हो तो कृपा कर मुझे लिखने का कष्ट करें। मैं यथाशक्य अवश्य आपका समाधान करूँगा। निबन्ध में दिये हुए प्रायः सभी प्रमाण मेरे पास संग्रहित है। शासन देव, शासन विरोधियों को सद्बुद्धि प्रदान करें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि मुखवस्त्रिका की दुर्दशा विकृति का काम वस्तु की असलियत को बिगाड़ना है । विकृति अपने स्वभावानुसार किसी वस्तु को असली रूप में नहीं रहने देती । जिस प्रकार चैतन्य जड़ के प्रभाव से अपने मौलिक स्वरूप को भूल कर विविध अवस्थाओं का अनुभव करता है, उसी प्रकार अन्य वस्तुएँ भी विकार बल से मौलिक अवस्था को छोड़ कर विविध रूपों में परिवर्तित हो जाती हैं । मुखवस्त्रिका के विषय में भी ऐसा ही हुआ। मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने का इतिहास नया नहीं किन्तु जैन शासन के साथ ही सम्बन्धित है। लेकिन इस पञ्चम काल में जब से जैन शासन को अत्यधिक विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ा, तब से धीरे धीरे इसमें भी परिवर्तन होने लगा । पहिले जैन समाज के सभी साधु मुनिराज खान-पानादि कारणों के अलावा इसे सदैव मुख पर बँधी रखते थे, फिर शिथिलता होते होते अमुक अमुक प्रसङ्ग पर ही बाँधना स्वीकार कर कुछ समय के लिये हाथ में रखने लगे । दिन रात में कई बार ( स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, वाचना, पृच्छा, परावर्त्तना, व्याख्यान, पठन-पाठन आदि अनेक कार्यों में) मुँह पर बाँधी जाकर बाकी थोड़े समय के लिए हाथ में रखना शुरू हुआ । फिर ज्यों ज्यों शिथिलता बढ़ती गई त्यों त्यों मुखवस्त्रिका का स्थान मुँह से हटने लगा। चलते चलते यहाँ तक हुआ कि मूर्तिपूजक समाज साधु वर्ग में विक्रमीय बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक व्याख्यान प्रसंग पर ही मुखवस्त्रिका मुँह पर रह कर बाकी सब समय के लिए नीचे उतर गई । और अब तो इस समाज का एक भाग मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधना ही पाप समझने लग गया। For Personal and Private Use Only ७३ ** Jain Educationa International Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मुखवस्त्रिका की दुर्दशा ************************************** इस प्रकार वर्तमान काल में मुखवस्त्रिका को मूर्तिपूजक जैन समाज के एक बड़े भाग द्वारा सर्वथा मुँह से अलग रहना पड़ा। किन्तु इसका श्रेय किन महानुभावों को है? पाठकों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि इस प्रवृत्ति का सर्व श्रेय हमारी साधुमार्गी समाज से निकल कर मूर्तिपूजक समाज में गए हुए महानुभावों को ही है। मुखवस्त्रिका की वर्तमान दुर्दशा उन्हीं लोगों ने की है जो पहिले कुछ वर्षों तक निरन्तर बाँधा करते थे। उन महानुभावों के शुभ नाम निम्न अवतरणों में देखिये - (१) “शेठजी आपकी सारी उवर* में कोई साधु कजा विषे मुखपति घाले बिना कथा करता देख्या? तिवारे शेठजी बोल्या मैंने तो कोई नहीं देख्या, मेरा पिता सितेर बरस का था ते पिण कहे , था मैं नहीं देख्या कोई साधु मुखपत्ति कना वीच घाले बिना कथा करता देख्या नहीं। एक बूटेराय जब का आया है तब का देखणे में आया है। तथा मूलचंद वृद्धिचंद पिण नहीं बाँधते।" (मुंहपत्ति विषे चर्चा, ले० बूटेरायज़ी, सन् १८७८ पृ० ६२ पं० २०) (२) "व्याख्यानादि मां मुहपत्ति बाँधवी ने अवश्य शास्त्राधारे अमो देखाड़वा तइयार छीए अने क्यां सुधी कई व्यक्ति थी छुटी ते पण देखाड़वा अमो तइयार छीए।" - पं० कल्याणविजयजी . (मुम्बई समाचार दैनिक ता०८-८-३४ पृ० १५ 'जइन समाज सावधान' शीर्षक से) (३) “आ प्रथा ए कांइ आजकल शरू करेल प्रथा नथी, परंतु * उम्र, आयु। ® कान। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ७५ ********************* ************ ** *** पूर्वना श्रीगणधर महाराजादिक सुविहित, पूर्वधर महापुरुषो तरफ थी परंपरा मां मलेल वारसो छे, तेमज श्री बूटेरायजी महाराज ना पहेला । बधाना पूर्वजो बांधता हता ए निःसंशय बिना छ। श्री बूटेरायजी महाराज ना परिवार मां पण श्री नीतिविजयजी महाराजे बांधेल छे, बहुश्रुत पंन्यास श्री गंभीरविजयजी महाराजे पण अमदाबाद मां लुहार नी पोलना उपाश्रये व्याख्यान समये बांधेल हती, एटलुंज नहीं पण ए प्रथा सत्य अने वास्तविक छे तेम तेओ श्रीए लखेल पण छे, बहुश्रूत सुरीश्वरोए पण परंपरा थी बांधवानु स्वीकार्यु छे, तेमना हस्ताक्षरों.पण जनता नी जाणमाटे प्रसिद्ध थयेला छे, प्रसिद्ध सुरीश्वरोए पण कहेलुं के गुरु महाराज न होता बांधता एटले अमे नथी बांधता पण बांधवाना रिवाज ने खोटो नथी गणता, कर्मनुं सारूं ज्ञान धरावनार प्रसिद्ध उपाध्यायजी पण अमारा साधुनी साथे बातचीत दरम्यान कहेल छे के मुँहपत्ति बाँधवा विषेना पाठो तमारा करतां पण अमारा वांचवा मां बधारे आवेल छे। प्रसिद्ध पंन्यासजी ए पण अमारा एक साधु साथे बातचीत दरम्यान कहेल छे के मुँहपत्ति बांधवानुं खंडन करनार विराधक छे।" - ले० विजय हर्षसूरिजी (मुंबई समाचार दैनिक ता० ५-१२-३४ पृ० ६, मुँहपत्ती नी चर्चा लेखांक २ से) उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया कि मूर्तिपूजक समाज के सभी साधु व्याख्यानादि प्रसंग पर मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधते थे, किन्तु जब से बूटेरायजी इनकी समाज में गये तब से मुखवस्त्रिका का मुँह से सर्वथा असहयोग हुआ और असहयोगी हुए बूटेरायजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ मुखवस्त्रिका की दुर्दशा ************************************** आदि। ये वे ही बूटेरायजी थे जो साधुमार्गी जैन समाज (पंजाब . सम्प्रदाय) से निकाले गये थे। इनके सिवाय अन्य आत्मारामजी आदि साधुओं ने भी स्थानकवासी समाज से निकल कर मुखवस्त्रिका की दुर्दशा करने में बहुत परिश्रम किया। जब तक यह प्रथा चलेगी, फैलेगी और इसके द्वारा आगम-आज्ञा, मुनि-धर्म तथा जीवों की विराधना होगी इसका अधिक लाभ (?) उक्त महात्माओं के हिस्से में रहेगा। कदाचित्त ऐसा कोई पाप नहीं होगा, जिसका फल उल्टी श्रद्धान के फैलाने से बढ़कर हो, क्योंकि इससे जनता उन्मार्ग गामी होकर क्लेश आदि से अपना अहित कर लेती है। मुखवस्त्रिका की इस तरह दुर्दशा होने के मुख्यतः दो कारण हैं एक तो शिथिलता, दूसरा स्थानकवासी समाज पर का द्वेष। इन्हीं दो मुख्य कारणों से इसकी असलियत बिगड़ी है और ये ही बातें मुखवस्त्रिका की दुर्दशा के कारण हैं। जो सम्यग् श्रद्धान वाले क्रियावादी सज्जन हैं, वे अपने द्वारा इस उपयोगी और हितकारी क्रिया का लोप कभी नहीं करते, बल्कि जहाँ तक बन सके इसका प्रचार कर धर्म सेवा करते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ (अभिप्राय) (१) Uvasaga-dasao Page 51 Note 144. Text-Muhapatti, Sanskrit-Mukhapatri Lit, a Leaf for the mouth, a small piece of cloth, suspended over the mouth to protect it against the entrance of any living thing, see Bhagwati P. 195 where Muhamottiam is probably an error for Muhapattiyam. (उपरोक्त अंग्रेजी का हिन्दी अनुवाद) उवासग दसाओ पत्र ५१ नोट १४४ मूल मुँहपत्ति संस्कृत मुखपत्री शब्दार्थ 'मुँह के लिये एक पट्टी' ‘एक छोटा कपड़े का टुकड़ा' मुँह के अन्दर किसी जानदार चीज का प्रवेश रोकने के लिये मुँह पर लटकाया जाता है, देखो भग० पत्र १९५ जहाँ मुहमोत्तियम् शायद गलती है मुहपत्तियम् के लिये। (अभिप्राय) (२) (यह निम्न अभिप्राय एक रसायन शास्त्री का है जो भारत में सर्वश्रेष्ठ रसायनिक हैं।) The Jain Sthanakwasi Sadhu is noted for his asceticism and for the riged observance of the vow of non-violence in thought, speech and deed. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 परिशिष्ट ************************************** The one Constant endeavour of his life is to follow this vow in all its baried aspects. Even his dress, which may appear somewhat peculiar, has been evolved so as to help him in his object. The "Munhpatti" i. e. small piece of cloth which he wears on his mouth at all times, except when he is taking his meals or doing such things, is probably the most peculiar feature of his dress. It has for him the moral value in that it serves as a constant reminder that whatever comes out from the mouth underneath it must be pure, truthful and honest. Apart from this moral significance the Munhpatti prevents injury to the microscopic organisms floating in the air, which would be caused by the just and wartruth of the breath if it were unchecked by the Munhpatti over the mouth. This may seem as carrying the practice of non-violence to fantastic heights but with this one must remember that the one mission of the Sadhu's life is to practice non-violence as rigidly and completely as is humanly possible. Leaving Aside these spiritual values, the piece of cloth has also some obvious hygienic advantages. A Surgeon covers his mouth when performing an operation to protect his patient against any infection that may be carried with his breath and also to protect himself against any infection being carried to his throat. (Often those who prepare food do the same and for the same reason.) The "Munhpatti" in a measure vary Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ৩ ***************** ********************* ing under circumstances, safeguards the user and those surrounding him from possible infection carried by the breath. But the iessential significance is spiritual and whatever the hygienic value is only incidental. Daulat Singh Kothari M. Sc. PH. D. (Cantal) Head of the physics Dept., University, DELHI. (उपरोक्त अंग्रेजी अभिप्राय का हिन्दी अनुवाद) जैन स्थानकवासी साधु अपनी तपस्या और अहिंसा व्रत को मन, वचन और कर्म से कड़ी तौर पर पालन करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके जीवन का एक मात्र दृढ़ उद्योग इस व्रत को उसके विभिन्न रूपों में पालन करना है। यहाँ तक कि उनका वेष भी जो कुछ विचित्र सा प्रतीत हो सकता है उनके उद्देश्य को पूरा करने में सहायता प्रदान करने वाला बन गया है। "मुँहपत्ति' अर्थात् कपड़े को छोटा टुकड़ा, जिसको वे भोजन अथवा ऐसा ही कोई कार्य करने के अतिरिक्त, हर समय मुँह पर बाँधे रखते हैं, उनके वेष की सबसे अधिक विचित्रता है। उनके लिए इसका नैतिक सुख यह है कि यह हर वक्त उनको स्मरण कराती रहती है कि उसके नीचे से, मुँह से जो शब्द निकलें वे शुद्ध, सत्य और निष्कपट हों। इस नैतिक अभिप्राय के अतिरिक्त यह "मुँहपत्ति' वायु में उड़ने वाले सूक्ष्मदर्शी जीवों को उस हानि से बचाती है कि जो यदि "मुँहपत्ति" नहीं होती तो श्वास के झोंके और उसकी उष्णता से हो जाती। ऐसा करना अहिंसा के अभ्यास को विचार तरङ्गों में उड़ा लेंना प्रतीत हो सकता है परन्तु स्मरण रहे कि साधु के जीवन का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 परिशिष्ट ** *** एक मात्र उद्देश्य अहिंसा व्रत को जहाँ तक मानव प्रयास में सम्भव है कड़ी तौर पर एवं पूर्णता से पालन करना ही है। इन आध्यात्मिक लाभों को छोड़कर, इस कपड़े के टुकड़े से कुछ स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ भी हैं। जैसे एक सर्जन जब चीरा फाड़ी का काम करता है उस समय वह अपना मुँह ढ़क लेता है ताकि उसके श्वास से रोगी पर कोई जीव असर नहीं करे तथा रोगी के रोगिष्ठ कीट भी उसके गले में प्रवेश न कर सकें। (भोजन बनाने वाले भी प्रायः इन्हीं कारणों से ऐसा ही किया करते हैं ।) संयोगानुकूल, विभिन्न नामवाली " मुँहपत्ति" उसको बांधने वाले तथा उसके निकटस्थ लोगों की श्वास से लग जाने वाले रोगों से रक्षा करती है। परन्तु इसका मुख्य अभिप्राय आध्यात्मिक ही है और जो स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ हैं, वे केवल आकस्मिक हैं। (अभिप्राय) (3) श्री रत्नविजयजी गणि 'मुँहपत्ति चर्चासार' पृष्ठ ७६ में अन्तिम प्रार्थना करते हुए लिखते हैं कि - " आ प्रकारे मुहपत्ति बंधन ने लगता प्रसंगों विषेना पूर्वाचार्यों कृत जुदा जुदा प्राचीन शास्त्र ग्रन्थोना पाठोनो मली आवेलो संग्रह पूर्ण थाय छे, तेथी मुहपत्ति बंधन ए जैन शास्त्र विहित प्रवृत्ति छे, निर्विवाद सिद्ध थाय छे, ते स्वलिंग छे, ते बांधवामां न आवे तो प्रायश्चित्त आवे छे. एम 99 पुनः पृष्ठ ६१ की अन्तिम पंक्ति में लिखते हैं कि - For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ८१ ************ ************************** मुहपत्तिनुं अबंधन निवारित प्रवृत्ति छे, अने मुहपत्ति बंधन शास्त्र पाठोथी साबित परंपरानी अने अनिवारित प्रवृत्ति छे, एटले के शास्त्र सिद्ध अने संघ-सम्मत, परंपरा सिद्ध एम बन्नेय रीते तीर्थ रूप प्रवृत्ति छ। (अभिप्राय) सम्मति पत्र - प्रसिद्ध गणिवर्य-नाभा शास्त्रार्थ विजेता-श्री उदयचंद्रजी महाराज साहब की सम्मति - आज यह 'मुखवस्त्रिका-सिद्धि' निबन्ध भाई रतनलालजी डोशी ने पढ़कर सुनाया, बड़ा आनन्द हुवा। लेखक ने बड़ी होशियारी से मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधना सप्रमाण सिद्ध किया है। हमारा अभिप्राय है कि इससे समाज का बड़ा लाभ होगा। समस्त जैन समाज को चाहिए कि इस पुस्तक को ध्यान पूर्वक पठन और मनन कर लेखक के परिश्रम को सफल करें। (अभिप्राय) (४) भारत रत्न शतावधानी प्रसिद्ध विद्वान् पण्डित मुनिराज । श्री रत्नचन्द्रजी महाराज साहब की सम्मति -. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ परिशिष्ट ************************************** भाई रतनलालजी डोशीए मुखवस्त्रिका सिद्धि नामनो निबंध अथ थी इति सुधी स्वमुखे वांची संभलाव्यो लेखकनी शोधक वृत्ति प्रशंसा पात्र छे जेओ मुखवस्त्रिका बांधवानुं स्वीकारता नथी, तेओनां वचनोनुं अवतरण आपी ने मुखवस्त्रिका बांधवानुं सप्रमाण समर्थन कर्यु छे, ए लेखकनी खूबी छे.. आवा ऊगता लेखकने ए दिशामां उत्साह प्रेरक उत्तेजन मले तो ते आथी पण वधारे संगीन साहित्यनी सेवा बजावी शके, एवी संभावना छे जिज्ञासु वर्ग लेखकना प्रयासनी कदर करवा नहिं चूके एवी आशा छे सुज्ञेषु किं बहुना. परिशिष्ट-२ (१) प्राचीन चित्र - '."प्रदर्शन मां व्याख्यान प्रसंग ना चित्रों मां मुँहपत्ती बंधन वाला चित्रों जोवा मां न आव्या होय तेथी करीने समस्त भारतवर्ष ना पिक्चर ग्रन्थों मां तेवा चित्रों नथीज एम मानवु ए मुर्खाइज छे, अनेक स्थानों मां तेवा प्राचीन चित्रों छे, अने समय आव्ये प्रसिद्ध पण थशेज." - श्री विजय हर्षसूरिजी (मुम्बई समाचार दैनिक ता० २७-८-३४ . पृ० ७ मुहपत्तिनी चर्चा शीर्षक से) (२) हाथ में रखने से कार्य सिद्धि नहीं होती - "हाथ मां राखी ने वांचनार नी ते विषे केटली उपयोग शून्यता छे, ते विषेनी भूल कबूल कर्याना दृष्टांतो मोजूद छे, अने श्रोताओ ने पण सुविदित थयेल छे के हाथमा राखीने वांचनारनी उपयोग शून्यता थाय छे." xxx Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************************************** (३) खुले मुँह बोला हुवा वचन पापकारी है - “आगल चालता तेओ लखे छे के श्री भगवतीजी ना वाक्य थी बोलतां मुख ढांकतुं एटलुंज नक्की छे, जो तेथी सावध वचन पणुं टालवा बांधवानी होय तो बधी वखत बोलतां बांधवी पड़शे" आना प्रत्युत्तर मा जणाववानुं के "श्री भगवती सूत्र, श्री महानिशीथ सूत्र आदि ना शास्त्र प्रमाण जोइए तो बेशक उघाड़े मोंढे उच्चारायेलं वचन सावद्य वचन-पापवालुं वचन छे." xxx “मुखने अडाडीनेज राखी शकाय, अने वास्तविक यतना जलवाय परंतु मुखथी दूर राखवा थी पूर्ण यतना जलवातीज नथी." xxx (४) मुखवस्त्रिका मुँह पर अवश्य बांधना चाहिये - _. “जे मउन रहेनार पण बांधे छे तो बोलनारे तो खास करीने मुँहपत्ति बांधवीज जोइए, मउन रहेनार श्रावक ने तो ज्ञानाशातना नुं कारण नथी, मुखमां कांई पड़वानुं संभव नथीं तेम छतां पण जो मुख-कोश बांधे छे तो मुनिओ ने तो वांचन ने अंगे ज्ञान नी आशातना टालवी होय छे, तथा वायुकायादिक जीवोनी रक्षा करवानी होय छे, ते कारण माटे श्रावक थी पण साधुनी जवाबदारी विशेष वधे छे." । (५) वर्णनात्मक उल्लेख की शङ्का का समाधान - “वली घणां शास्त्रमा केटलेक स्थाने दांतनी कांति नुं वर्णन आवे छे तेपर थी मुंहपत्ति नहीं बांधता होय तेम कहे छे, परंतु ते वर्णन तो केवल वस्तु स्वरूप नी दृष्टिए कराएल छे अने तेथी मुंहपत्ति बांधवाना अभाव ने सिद्ध करनार नथी, केम के तेम करवा जतां तेओ उघाड़े मुखे बोलता हता तेम सिद्ध थइ जशे." . - नं० २ से ५ तक ले विजय हर्षसूरिजी मुहपत्तिनी चर्चा ('मुम्बई समाचार' दैनिक ता० ५-१२-३४ पृष्ठ ६) तथा ('जैन भावनगर' ता० १६-१२-३४ पृष्ठ ११५१) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ****** (६) मुखवस्त्रिका गीली होने की शङ्का का निराकरण - "वली घणी वखते कहेवा मां आवेल छे के बांधनार नी मुंहपत्ति भीनी थाय छे तो ते विषे लखवानुं के हाथ मां रखाती होय तेमज मुंहपत्ति ना अभावे ज्ञान नी आशातना तथा जीव विराधना तेओ टाली शकता नहीं होय तेम आपना लखाण परथीज जणाय छे xxx हाथ मां राखनार जो बरोबर उपयोग पूर्वक वरते तो तेणे मुखने अडाडी नेज राखवी जोइए अने तेथी तो तेनी वधारे भीनी थायज, पण जेओनी भीनी न थती होय तेओ मुख थी दूर राखता हो, अने तेथी उपयोग बराबर जलवातो नहींज होय तेम जाणी शकाय छे." - मुंहपत्तिनी चर्चा, ले० विजय हर्षसूरिजी ८४ (मुम्बई समाचार दैनिक ता० १२ - १२ - ३४ पृष्ठ १२) (७) आठ प्रत वाली मुख वस्त्रिका बांधना चाहिये - " तेमज आपना तरफ थी आवश्यक बालावबोध ना पाठना आधारे आठपडी मुंहपत्ति बांधवानुं कहेवा मां आवे छे एटले नहीं बांधवानो पाठ मलवो शक्य नथी, कारण के तमारा अने अमारा शास्त्रो एकज छे, अमें बांधवानुं स्वीकार्य छे, त्यारे तमों बांधवाना पाठा आपो छो अने ते पाठोज तमारे माटेपण बांधवानुं विधान करे छे." ( जैन ता० ६-१-३५ पृष्ठ २०) सूरसागरजी ने जवाब - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pall DIE Dla bi व्यावर राजा Education temetional For Personal and Private Use Only www.aline library