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मुखवस्त्रिका सिद्धि
वस्त्र से उत्तरासंग कर दोनों हाथों को जोड़ कर समवसरण में प्रविष्ट हुए। अतएव शोभा करने का कहना अनुचित सिद्ध हुआ ।
दूसरा उत्तरासंग से शोभा का वहाँ कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जहाँ समवसरण दृष्टिगोचर हुआ कि त्वरित शोभावर्द्धक वस्तुएँ दूर कीं और फिर उत्तरासंग धारण किया। यदि उत्तरासंग से शोभा बढ़ाना ही अभीष्ट होता तो उन्हें घर से रवाना होते समय अन्य शोभावर्द्धक वस्तुओं के साथ साथ उत्तरासंग भी करना चाहिये था । पर ऐसा कथन तो है ही नहीं।
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अतएव सिद्ध हुवा कि उत्तरासंग का मुँह की यत्ना में उपयोग करना प्रमाणिक और शास्त्र सम्मत है ।
(२) हमारे सुन्दरजी की समाज के कर्पूरविजयजी के शिष्य पुण्यविजयजी तत् शिष्य प्रधानविजयजी लिखित और दानमल शंकरदान नाहटा, बीकानेर द्वारा प्रकाशित "जिनराज भक्ति आदर्श" में लिखा है कि -
" देरासर के अन्दर प्रवेश करने के समय से लेकर निकलने के वक्त तक उघाड़े मुंह से बोलना ही निषिद्ध है । अष्ट पट मुखकोश और " उत्तरासन" का किनारा इसी के लिए ही है, किन्तु इस तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता है । "
ये दो प्रमाण ज्ञानसुन्दरजी के नेत्र खोलने में पर्याप्त होंगे, खोज करने पर और भी अनेक प्रमाण इस विषय के पुष्ट करने वाले मिल सकते हैं परन्तु इतने प्रयत्न से ही हम ज्ञानसुन्दरजी से यह अवश्य कहेंगे कि महात्मन्! व्यर्थ की कुतर्के करना छोड़िये और सरल बुद्धि से विचारिये तो आपको यह विश्वास होगा कि उत्तरासंग रखने का मुख्य मतलब धार्मिक प्रवृत्ति में निरवद्य भाषा बोलने के उपयोग में
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