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शका - समाधान
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अब हम इन्हें सुझाते हैं कि आप जरा सत् गुरुओं की शरण लेकर सिद्धान्तों की सद्बुद्धि से स्वाध्याय करें और फिर तर्क उठाने की हिम्मत कीजिये । देखिये, निम्न प्रमाण क्या बताते हैं -
(१) भगवती सूत्रानुसार मुँह पर वस्त्र रख कर बोली हुई भाषा ही निरवद्य भाषा हो सकती है। और भगवती, उपाशकदशांग, औपपातिक आदि सूत्रों में राजाओं, श्रावकों आदि के प्रभु वन्दन करने को जाने का वर्णन आया है । वहाँ वे उत्तरासंग करके गये थे, ऐसा कथन भी है। उन्होंने धर्मोपदेश भी श्रवण किया और प्रश्नोत्तर भी हुए थे, तो क्या वे ऐसे प्रसंग में खुले मुँह से बोले थे ? नहीं । उन्होंने मुँह पर वस्त्र रखकर ही शब्दोच्चार किया था। क्योंकि खुले मुँह बोलना तो सावद्य भाषा है, जो भगवती सूत्र के प्रमाण से सिद्ध होकर आपको भी मान्य है । इसलिये सिद्ध हुवा कि वे श्रावकादि वस्त्र से मुँह की यतना करके निरवद्य भाषा ही बोले थे ।
अब यहाँ प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि क्या वह वस्त्र मुखवस्त्रिका थी या उत्तरासंग ? तो इसका सहज ही उत्तर है कि मुखवस्त्रिका नहीं, वहाँ उत्तरासंग ही उपयुक्त होता है । क्योंकि वहाँ सामायिकादि विशेष धार्मिक करणी करने का कथन नहीं है। इसलिए उत्तरासंग से ही मुँह की यतना करना सिद्ध होता है ।
श्री ज्ञानसुन्दरजी उत्तरासंग को केवल शोभा के लिए ही रखना बताते हैं, पर यह बात भी इनकी एकान्त होने से ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ शोभा का कोई खास कारण नहीं था। हां, शोभा तो उन लोगों ने घर से प्रस्थान करते समय अवश्य की थी, पर जहाँ समवसरण दृष्टिगत हुआ कि फौरन पुष्पमालाएँ उतार कर अलग डाल दी, जूते खोल डाले, छत्र उतार दिये, मुँह का पान थूक दिया और
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