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________________ निवेदन | . जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर प्रभु ने अपने विमल एवं निर्मल केवल ज्ञान के द्वारा न केवल चलते-फिरते दिखाई देने वालों जीवों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया, अपितु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवों का सद्भाव जानकर उनकी रक्षा का उपदेश फरमाया तथा अपने उत्तराधिकारी सर्व विरति साधु समाज के लिए इन पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप जीवों की भी वैसी ही पूर्ण रूपेण रक्षा करने का निर्देश दिया, जैसे हलते-चलते त्रस जीवों की रक्षा को। मात्र चलने-फिरने वाले जीवों की रक्षा करने से जैन साधु अहिंसा महाव्रत का पालक नहीं कहा जा सकता, जब तक वह अव्यक्त वेदना वाले पृथ्वी, पानी, तेऊ, वायु और वनस्पति काय जीवों की पूर्ण रूप से रक्षा (दया) नहीं करता है। पांच स्थावर काय मे चार तो (पृथ्वी, पानी, तेऊ एवं वनस्पति) चक्षु. ग्राह्य है। अतएव उनकी रक्षा तो संभव है, पर वायुकाय चक्षु ग्राह्य नहीं है, उन वायुकाय जीवों की पूर्ण रूपेण रक्षा प्रभु महावीर के उत्तराधिकारी सर्व विरति साधक द्वारा कैसे हो? इसके लिए प्रभु ने उनके लिए मुखवस्त्रिका को चौबीस ही घण्टे मुख पर बांधे रखने का विधान किया है, ताकि उनके द्वारा वायुकायिक जीवों की पूर्ण रक्षा हो सके। साधु समाज जो छह काय जीवों के रक्षक प्रतिपालक कहें जाते हैं, वे यदि मुख पर मुखवस्त्रिका बराबर बांधे नहीं रखते हैं तो उनके द्वारा पायुकायिक जीवों की रक्षा संभव नहीं। जहाँ वायुकायिक जीवों की रक्षा नहीं होती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003678
Book TitleMukhvastrika Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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