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हो, तो वहाँ अहिंसा महाव्रत का पालन कदापि संभव नहीं हो सकता। यानी मुख पर मुखवस्त्रिका हमेशा बांधे रखने पर ही जैन साधु अहिंसा महाव्रत का पूर्ण पालक कहा जा सकता है ।
गणधर भगवन्तों ने जैन साधु समाज के लिए जिन धर्मोपकरणों की परिगणना की उनमें "मुखवस्त्रिका " सबसे अधिक उपयोगी एवं आवश्यक उपकरण बतलाया है। यहाँ तक की सर्वोत्कृष्ट आराधना करने वाले अचेलक, जिनकल्पी मुनि जो वस्त्र तक नहीं रखते हैं, उनके लिए भी मुख पर मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण रखना अनिवार्य बतलाया गया है। यह तो सर्व विरति जैन साधु समाज की बात हुई। पर जो श्रमण नहीं, किन्तु उनका उपासक यानी श्रमणोपासक है, उनके लिए भी धार्मिक साधना आराधना करते वक्त मुख पर मुखवस्त्रिका रखना आवश्यक है। भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक ५ में साधु संतों के दर्शन करने के लिए जाने वालें श्रमणों पासकों के लिए पांच अभिगम (नियम) का पालन करने का प्रभु ने फरमाया है । उनमें तीसरा अभिगम मुंह पर उत्तरासंग लगाकर संत सतियों के दर्शन करने का है। क्योंकि भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशक २ में खुले मुंह बोलने पर शक्रेन्द्र की भाषा को प्रभु ने सावधकारी कहा है । इसीलिए श्रमणोपासकों के लिए संत-सतियों के दर्शन एवं वार्ता करते वक्त मुंह पर उत्तरासंग अथवा मुखवस्त्रिका रखने का विधान है, खुले मुंह उनसे वार्तालाप करने का निषेध किया है। जब श्रमणोपासक के लिए भी साधु साध्वी से खुले मुंह वार्तालाप का निषेध है, तो फिर जैन साधु-साध्वी को तो खुले मुंह रहना, बोलना, कल्प ही कैसे सकता है? यह तो एक सामान्य बुद्धि वाला बालक
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