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[5] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भी समझ सकता है। जो जैन साधु साध्वी खुले मुंह रहते हैं, खुले मुंह बोलते हैं अथवा खुले मुंह बोलने की प्ररूपणा करते हैं, वे सावध भाषा बोलने वाले एवं इसके प्ररूपक होने से आगम आज्ञा (भगवती सूत्र श० १६ उद्देशक २) के विराधक है।
. जैन साधु साध्वी के लिए मुंह पर हमेशा मुखवस्त्रिका बांधे रखने का आगम में जो विधान किया है, इसके पीछे मुख्य दो कारण है। प्रथम वायुकायिक जीवों की रक्षा। दूसरा साधुत्व का चिह्न। मुंह पर मुखवस्त्रिका बंधी देख कर सहज ही अन्यतीर्थिक समझ जाते हैं कि यह जैन साधु साध्वी है। अन्य तीर्थिक ग्रन्थ शिवपुराण अध्ययन ११ श्लोक २५ में जैन साधु की पहिचान के लिए निम्न श्लोक है।
हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः। मलिनान्येव वासांसि, धारयन्तोऽल्पभाषिणः
इस श्लोक के दूसरे चरण में “तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः" यह शब्द स्पष्ट बतला रहा है कि मुंह पर वस्त्र यानी मुखवस्त्रिका धारण करने वाले जैन साधु होते हैं, हाथ में रखने वाले नहीं। क्योंकि हाथ में रूमाल आदि रक्खा जाता है, मुंखस्त्रिका नहीं।
आगम एवं प्राचीन परम्परा तो जैन साधु-साध्वी के लिए मुंह पर मुखवस्त्रिका हमेशा बांधे रखने की है। क्योंकि मुखवस्त्रिका शब्द अपने आप में ही ऐसा है जो अपना अर्थ स्वयं प्रकाशित करता है अर्थात् जो वस्त्र मुख पर बांधा जाता है, वह मुखवस्त्रिका कहलाता है। किन्तु भला हो शिथिलाचार का जिसने धीरे-धीरे इसमें भी करिश्मा दिखलाया। पहले जैन समाज के सभी साधु-मुनिराज खानपानादि प्रसंगों के अलावा इसे सदैव मुख पर बांधे रखते थे,
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