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________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************************************** जाने वाली मूर्ति को मुकुट कुंडलादि लगाकर राजा जैसी बना देते हैं। क्या वे लोग इस प्रकार के प्रश्न करने के अधिकारी है? यहाँ पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिये कि - तीर्थंकर प्रभु यद्यपि मुखवस्त्रिका आदि नहीं रखते थे, तथापि वे निर्वद्य भाषा ही बोलते थे। प्रभु ने कभी सावध भाषा बोली ही नहीं, ऐसा खास आचारांग सूत्र से पाया जाता है। अपने अतिशय प्रभाव के कारण सर्व साधारण की दृष्टि में वे साधु वेष युक्त दृष्टिगत होते थे। इसलिए अगर उन प्रभु का चित्र मुखवस्त्रिका युक्त दिया गया तो क्या, अनुचित है? हम ऐसे कई चित्र मूर्तिपूजकों की ओर के बता सकते हैं, जिनमें उन्होंने प्रभु को वस्त्र-युक्त चित्रण किया है। खासकर उसमें चन्दनबालाजी के दान देने के समय का चित्र तो प्रत्यक्ष इस बात को स्पष्ट कर रहा है। ऐसे एक नहीं अनेकों चित्र हैं*। फिर ज्ञानसुन्दरजी को यह कुतर्क करने की बुद्धि क्यों सूझी? केवल वैर चुकाने के लिये ही क्या? ★ सिर्फ इन्द्र द्वारा अर्पित खन्धे पर रखा हुवा वस्त्र ही रहता है। * ज्ञानसुन्दरजी! अपना धन्य भाग्य समझो कि तुम्हारी यह कुतर्क किसी दिगम्बर के देखने में नहीं आई। अन्यथा ऐसे कल्पित चित्रों के लिए जब वे आप से जवाब तलब करेंगे, तब तो आपको बगलें ही झांकनी पड़ेंगी। क्योंकि आपने नग्न प्रभु को वस्त्र पहिनाये हैं। यदि वास्तव में देखा जाय तो इन ज्ञानसुन्दरजी जैसे फक्कड़ों ने ही जैन समाज को बरबाद किया है। यदि ये मूर्ति पर व्यर्थ के मन कल्पित आडम्बर नहीं मढते तो दिगम्बर-श्वेताम्बर के ये झगड़े भी उपस्थित नहीं होते और करोड़ों रुपयों का चूर्ण नहीं होता। बस यह करामात इन कुल गुरुओं की ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003678
Book TitleMukhvastrika Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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