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शंका-समाधान
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वाली मुखवस्त्रिका ही है। मुखवस्त्रिका के मुँह पर बँधी रहते हुए भी उससे दुर्गन्ध का प्रवेशद्वार तो स्पष्ट खुला हुआ ही था । इसीलिए उस द्वार (नासिका) को बन्द करने के लिए ही उसने ऐसा कहा था।
इससे एक बात यह भी पाई जाती है कि श्री गौतमस्वामी के मुँह पर जो मुखवस्त्रिका बंधी हुई थी वह ओष्ठ पर ही थी, न कि नासिका पर, और इसीलिए रानी को वैसा कहना पड़ा। अन्यथा क्या आवश्यकता थी? अतएव नाक पर से लेकर बाँधने की पद्धति अर्वाचीन ही प्रतीत होती है।
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(२)
शंका - आचारांग सूत्र में कहा है कि - साधु छींक, उबासी, डकार, खाँसी आदि लेते समय मुँह को हाथ से ढक ले, फिर यतना पूर्वक वायु निकाले । यदि मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधना सूत्र सम्मत T होता, तो हाथ से यतना करने का क्यों कहा जाता ?
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समाधान आपकी यह शंका भी मत-मत्तता ही जाहिर करती है। क्योंकि इस कथन से मुख वस्त्रिका का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह पाठ लिखकर आपकी शंका का समाधान किया जाता है। देखिए आचारांग सूत्र का वह पाठ
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा ऊसासमाणे वा णीसासमाणे वा, कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उडुएण वा वायणिसग्गे वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपिहित्ता तओ संजयामेव ऊससेज्ज वा जाव वायणिसग्गं वा आचारांग सूत्र श्रु० २ शय्याध्ययन उ० ३ सू० ७१०
करेज्जा ।
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