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________________ ७४ मुखवस्त्रिका की दुर्दशा ************************************** इस प्रकार वर्तमान काल में मुखवस्त्रिका को मूर्तिपूजक जैन समाज के एक बड़े भाग द्वारा सर्वथा मुँह से अलग रहना पड़ा। किन्तु इसका श्रेय किन महानुभावों को है? पाठकों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि इस प्रवृत्ति का सर्व श्रेय हमारी साधुमार्गी समाज से निकल कर मूर्तिपूजक समाज में गए हुए महानुभावों को ही है। मुखवस्त्रिका की वर्तमान दुर्दशा उन्हीं लोगों ने की है जो पहिले कुछ वर्षों तक निरन्तर बाँधा करते थे। उन महानुभावों के शुभ नाम निम्न अवतरणों में देखिये - (१) “शेठजी आपकी सारी उवर* में कोई साधु कजा विषे मुखपति घाले बिना कथा करता देख्या? तिवारे शेठजी बोल्या मैंने तो कोई नहीं देख्या, मेरा पिता सितेर बरस का था ते पिण कहे , था मैं नहीं देख्या कोई साधु मुखपत्ति कना वीच घाले बिना कथा करता देख्या नहीं। एक बूटेराय जब का आया है तब का देखणे में आया है। तथा मूलचंद वृद्धिचंद पिण नहीं बाँधते।" (मुंहपत्ति विषे चर्चा, ले० बूटेरायज़ी, सन् १८७८ पृ० ६२ पं० २०) (२) "व्याख्यानादि मां मुहपत्ति बाँधवी ने अवश्य शास्त्राधारे अमो देखाड़वा तइयार छीए अने क्यां सुधी कई व्यक्ति थी छुटी ते पण देखाड़वा अमो तइयार छीए।" - पं० कल्याणविजयजी . (मुम्बई समाचार दैनिक ता०८-८-३४ पृ० १५ 'जइन समाज सावधान' शीर्षक से) (३) “आ प्रथा ए कांइ आजकल शरू करेल प्रथा नथी, परंतु * उम्र, आयु। ® कान। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003678
Book TitleMukhvastrika Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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