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मुखवस्त्रिका सिद्धि
अने ए बात बोलती वखत मोढा आगल राखेला हाथ के वस्त्रना स्पर्श के चलनादि थी अनुभव सिद्ध छे, “तो तेवी रीते भाषानी वखते निकलेलो वायु बाहर रहेला सचित वाउकायनी विराधना करे मां शंकाने स्थान होई शके नहीं" ए बात पण शास्त्र सिद्ध छे के शरीर मां रहेलो वायु बाहर ना वायु ने शस्त्र रूपं छे x x x आदि . ' इसके सिवाय और भी प्रमाण जो पूर्वार्द्ध में दिये गये हैं, आपकी व ज्ञानसुन्दरजी की शंका का मूलोच्छेद करने में पर्याप्त हैं।
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श्री ज्ञानसुन्दरजी ने मुखवस्त्रिका हाथ में रखने का लाभ बताते हुए उसकी प्रतिलेखना के समय विशुद्ध भावना होने की जो डींग मारी है, उससे हाथ में रखने या मुँह पर बाँधने का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। क्योंकि प्रतिलेखना तो मुँह पर बाँधते हुए भी करनी पड़ती है । अतएव बाँधने का कोई सवाल इसमें उत्पन्न नहीं हो सकता । तथापि इनका यह लाभ - निर्देश- कथन केवल वाणी - विलास ही है, और इनकी इस प्रतिलेखन क्रिया में ऐसी भावनाएँ मुखवस्त्रिका द्वारा हों, यह कथन वास्तव में हास्यास्पद एवं प्रमाण रहित है।
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क्या मुखवस्त्रिका अपने आप इनके हृदय में ऐसी भावनाएँ उत्पन्न कर देती है ? या इन लोगों के कान में कह देती है ? कदापि नहीं। इससे तो बेहतर यह है कि एक ऐसा नियम ही बना दिया जाय, कि जिससे दिन में इतनी बार या अमुक अमुक समय इन भावनाओं का स्मरण अनिवार्य होता रहे । यदि प्रतिलेखना का यही उद्देश्य है तो सुन्दरजी को रजोहरण, वस्त्र, पात्र, दण्ड आदि के प्रतिलेखन समय की भावनाएँ भी जाहिर कर देनी चाहिये ।
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