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मुखवस्त्रिका की दुर्दशा
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आदि। ये वे ही बूटेरायजी थे जो साधुमार्गी जैन समाज (पंजाब . सम्प्रदाय) से निकाले गये थे। इनके सिवाय अन्य आत्मारामजी आदि साधुओं ने भी स्थानकवासी समाज से निकल कर मुखवस्त्रिका की दुर्दशा करने में बहुत परिश्रम किया। जब तक यह प्रथा चलेगी, फैलेगी और इसके द्वारा आगम-आज्ञा, मुनि-धर्म तथा जीवों की विराधना होगी इसका अधिक लाभ (?) उक्त महात्माओं के हिस्से में रहेगा। कदाचित्त ऐसा कोई पाप नहीं होगा, जिसका फल उल्टी श्रद्धान के फैलाने से बढ़कर हो, क्योंकि इससे जनता उन्मार्ग गामी होकर क्लेश आदि से अपना अहित कर लेती है।
मुखवस्त्रिका की इस तरह दुर्दशा होने के मुख्यतः दो कारण हैं एक तो शिथिलता, दूसरा स्थानकवासी समाज पर का द्वेष। इन्हीं दो मुख्य कारणों से इसकी असलियत बिगड़ी है और ये ही बातें मुखवस्त्रिका की दुर्दशा के कारण हैं।
जो सम्यग् श्रद्धान वाले क्रियावादी सज्जन हैं, वे अपने द्वारा इस उपयोगी और हितकारी क्रिया का लोप कभी नहीं करते, बल्कि जहाँ तक बन सके इसका प्रचार कर धर्म सेवा करते हैं।
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