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शंका-समाधान
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वास्तव में यह भावनाओं का खाली बहाना मात्र ही है। क्या, ज्ञानसुन्दरजी! यह बताने का कष्ट स्वीकारेंगे कि बिना मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना के ऐसी भावनाएँ हो ही नहीं सकती?
. . महाशय! साधु पुरुषों के तो स्वभाव से ही ऐसी भावनाएँ होती हैं। और विशेष कर ध्यान प्रतिक्रमणादि प्रसंग पर प्रकारान्तर से ऐसी भावनाएँ कही व विचारी भी जाती है। फिर खाली मुँहपत्ति मुँह पर नहीं बाँधने के लिए ही भावनाओं का बहाना लेना, मिथ्या नहीं तो क्या है?.
सुन्दरजी कहते हैं मूर्तिपूजक प्रत्येक कार्य में मुँहपत्ति प्रतिलेखन द्वारा अशुभ भावनाओं को हटाकर शुभ भावना द्वारा आत्म विशुद्धि करके ही क्रिया क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। सुन्दरजी अपने इन शब्दों से भोले लोगों को भले ही भ्रम में डाल दें, परन्तु जो लोग समझदार हैं और जो इनसे अधिक परिचय रखते हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि इनकी यह प्रतिलेखना किस प्रकार होती है? चट मुंहपत्ति को फैलाकर इधर उधर हाथों पर फिरा, कुछ सैकण्डों में ही इस कार्य की पूर्णाहुति कर दी जाती है। ऐसी हालत में इनकी भावनाओं का तो कहना ही क्या? यहाँ तो खाली हाथी के दाँत बताने के ही हैं।
ऐसी नित्य क्रिया द्वारा अशुद्ध भावनाओं को हटा कर शुद्ध भावना करने वाले सुन्दरजी महाराज का शब्द-माधुर्य तो देखिये, जो कमर कस कर साधुमार्गी समाज की निंदा करने में ही डटे हुए हैं। और कुलिंगी, निह्नव, उत्सूत्र भाषी, शासन भंजक, नास्तिक आदि तुच्छ शब्दों की वर्षा कर रहे हैं। क्या, शुभ भावनाओं का यही ज्वलंत प्रमाण है? क्या मुखवस्त्रिका को मुँह से उतार कर हाथ में लेने पर सुन्दरजी ने उससे ऐसी ही भावनाएँ प्राप्त की हैं? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
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