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मुखवस्त्रिका सिद्धि
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सुन्दर महाशयजी ! जिस क्रिया की भावना विशुद्धि भी बुद्धि शुद्ध कर देती हैं, उस क्रिया को यत्न से करने वालों को गालियाँ देना ही तो आपकी भावना विशुद्धि प्रमाणित हो रही है।
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ज्ञानसुन्दरजी को यह मालूम नहीं है कि जिस समाज में - बड़े बड़े और उच्च चारित्रवान् महात्मा हो गये हैं और वर्तमान में मौजूद हैं, जिनके उच्च चारित्र एवं त्याग वैराग्य की प्रशंसा मूर्तिपूजक समाज के विद्वान् भी कर रहे हैं और जिनके लिये आदर सूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उन सच्चे वीर पुत्रों की निंदा करना, शासन शत्रुता है । ऐसे कृत्यों का फल इन्हें अवश्य भोगना पड़ेगा ।
सुन्दरजी महाराज! अधिक क्या बताऊँ, आपकी योग्यता और मरुधर केशरीपन तो “जैन जाति निर्णय समीक्षा " जो "मुनि श्री : मग्नसागरजी " लिखित एवं खरतरगच्छीय जैन संघ द्वारा प्रकाशित है, उससे बखूबी जाहिर होती है। अब कृपा कर आप अपनी भाषा पर काबू कीजिये अन्यथा इसी " जैन जाति निर्णय समीक्षा" के आधार पर एक 'गयवर पुराण' लिख कर आपकी सेवा में समर्पित करना पड़ेगा ।
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ज्ञानसुन्दरजी महाराज ने अपनी कृति के पोथे में (जो अभी प्रकाशित हुवा है) स्थानकवासी समाज के साधुओं और लोंकागच्छ के यतियों व तेरह पन्थियों के कल्पित् फोटो देकर जो कुविकल्प किया है, वह वास्तव में इनकी हृदय कलुषितता का नग्न ताण्डव है । क्योंकि जिन शब्दों का इन्होंने प्रयोग किया है वे तो केवल कल्पित और द्वेष पूर्ण ही हैं।
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