Book Title: Mukhvastrika Siddhi
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 92
________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि मुखवस्त्रिका की दुर्दशा विकृति का काम वस्तु की असलियत को बिगाड़ना है । विकृति अपने स्वभावानुसार किसी वस्तु को असली रूप में नहीं रहने देती । जिस प्रकार चैतन्य जड़ के प्रभाव से अपने मौलिक स्वरूप को भूल कर विविध अवस्थाओं का अनुभव करता है, उसी प्रकार अन्य वस्तुएँ भी विकार बल से मौलिक अवस्था को छोड़ कर विविध रूपों में परिवर्तित हो जाती हैं । मुखवस्त्रिका के विषय में भी ऐसा ही हुआ। मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने का इतिहास नया नहीं किन्तु जैन शासन के साथ ही सम्बन्धित है। लेकिन इस पञ्चम काल में जब से जैन शासन को अत्यधिक विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ा, तब से धीरे धीरे इसमें भी परिवर्तन होने लगा । पहिले जैन समाज के सभी साधु मुनिराज खान-पानादि कारणों के अलावा इसे सदैव मुख पर बँधी रखते थे, फिर शिथिलता होते होते अमुक अमुक प्रसङ्ग पर ही बाँधना स्वीकार कर कुछ समय के लिये हाथ में रखने लगे । दिन रात में कई बार ( स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, वाचना, पृच्छा, परावर्त्तना, व्याख्यान, पठन-पाठन आदि अनेक कार्यों में) मुँह पर बाँधी जाकर बाकी थोड़े समय के लिए हाथ में रखना शुरू हुआ । फिर ज्यों ज्यों शिथिलता बढ़ती गई त्यों त्यों मुखवस्त्रिका का स्थान मुँह से हटने लगा। चलते चलते यहाँ तक हुआ कि मूर्तिपूजक समाज साधु वर्ग में विक्रमीय बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक व्याख्यान प्रसंग पर ही मुखवस्त्रिका मुँह पर रह कर बाकी सब समय के लिए नीचे उतर गई । और अब तो इस समाज का एक भाग मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधना ही पाप समझने लग गया। For Personal and Private Use Only ७३ ** Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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