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बांधते हैं, वे जिन वचनों की उपेक्षा ( बेदरकारी) एवं जीवों की विराधना करने वाले हैं।
असलियत में इस हाथ में रहने वाले वस्त्र को तो मुंहपत्ति नहीं कह कर "मुंह पोंछना" कहा जाय तो उपयुक्त होगा, क्योंकि ये लोग पानी पी लेने पर, या पसीना हो जाने पर इसी से मुँह पोंछते देखे गये हैं । मुखवस्त्रिका तो केवल नाम मात्र की ( कहने के लिए) ही है। वास्तव में तो उसका दुरुपयोग ही होता है ।
(१७)
शंका श्री ज्ञानसुन्दरजी ने तो इतिहास से भी मुखस्त्रिका को हाथ में रखना सिद्ध किया है । क्या आप भी ऐसा प्रमाण दे सकते हैं?
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शंका-समाधान
समाधान भाई ! आप यह तो जानते ही होंगे कि जैन शासन में जो शिथिलता घुसी है, वह आजकल की नहीं है, बल्कि सैंकड़ों हजारों वर्षों से है और सप्रमाण सिद्ध भी है । (जिसके लिए एक स्वतन्त्र निबन्ध लिखने का विचार है) फिर उसमें जो कुछ हो वह थोड़ा ही है । फिर भी हम यह कह सकते हैं कि चाहे थोड़ी संख्या
ही हो किन्तु सुविहितों की सत्ता भी अवश्य थी, और मुखवस्त्रिका के मुँह पर बाँधने की प्रवृत्ति भी थी। परन्तु ज्यों ज्यों शिथिलाचार बढ़ता गया त्यों त्यों इसमें छूट होती गई, व अन्त में मुँह से उतर ही पड़ी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि इन लोगों के ग्रन्थ तो कितने ही प्रसंगों पर बाँधना बताते हैं और ये कितने प्रसंगों पर बांधते हैं ? मतलब यह कि जब शिथिलाचार का प्रवेश हुआ तब इस मुखवस्त्रिका
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