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शंका-समाधान
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अब हमारे पाठक ही सोचें कि - उक्त प्रसंगों के सिवाय बाकी क्या, व कौनसा कार्य वा समय ऐसा रह जाता है, जिसमें मुखवस्त्रिका बाँधे बिना रहा जाय। जो लोग मुख से निकलती हुई वायु से बाहर की सचित्त वायुकाय की हिंसा होने की मान्यता रखते हैं, उनके लिये भोजन पान के सिवाय ऐसा कोई भी समय नहीं है कि वे खुले मुँह बिना मुखवस्त्रिका बांधे रह सकें।
बाँधने के उक्त प्रसंगों के सिवाय अब मुख्यतया चार प्रसंग और रह जाते हैं, एक तो भिक्षाचरी गमन, दूसरा ध्यान (कायोत्सर्ग), तीसरा शयन और चौथा प्रतिक्रमण। क्या इन प्रसंगों पर भी मुखवस्त्रिका बाँधने की आवश्यकता है? इस पर भी थोड़ा विचार किया जाता है।
(१) जब गोचरी (भिक्षाचरी) के लिए साधु जाते हैं, तब मार्ग में चलते समय यदि उनके मुँह पर मुखवस्त्रिकाएँ होती हैं तब तो उनका परिचय अपने आप अन्य मतावलम्बियों को हो जाता है। मुखवस्त्रिका के मुँह पर होने से वे पहिचान लेते हैं कि ये जैन साधु हैं। परन्तु मुखवस्त्रिका मुँह पर नहीं होकर हाथ में ही हो तो वह जैन लिंग की परिचायिका नहीं ठहर सकती। क्योंकि वैसे हाथ में तो प्रायः कई सम्प्रदाय के साधु कपड़ा आदि रखते हैं।
दूसरा यह देखने में आया है कि सम्वेगी साधु जब भिक्षा ग्रहण करते हैं तब एक हाथ में तो उनके दण्ड और झोली रहती है। दूसरे हाथ से वे भिक्षादाता को कम लेने व नहीं लेने का लम्बा हाथ कर इशारा करते हुए साथ ही थोड़ा थोड़ा, या नहीं नहीं, ऐसा मुंह से कहते जाते हैं। यह सब खुले मुँह ही होता है। यदि मुँह पर मुखवस्त्रिका बंधी हुई हो तो ऐसी अयला कदापि नहीं हो सकती।
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