Book Title: Mukhvastrika Siddhi
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 70
________________ मुखवस्त्रिका सिद्धि विडम्बना तो यह है कि जिस व्यक्ति के कर्ण छेद नहीं किया हो, या छिद्र छोटे हों, तो दीक्षा लेने पर उसे फिर से कर्ण वेध इसी मुखवस्त्रिका के लिए करना पड़ता है। तभी वह इस क्रिया का पालन कर सकता है। *** ५१ बड़े खेद की बात है कि ये लोग कर्णवेध "छविच्छेद" (चर्मछेद) कर्म तो कर लेंगे परन्तु पक्षपात के वश होकर जिससे अधिक यत्ना हो सके, ऐसी आठ प्रत वाली मुखवस्त्रिका डोरे से मुँह पर नहीं बांधेंगे। क्या पक्ष व्यामोह की भी कुछ सीमा है? ऊपर के विचार से पाठक समझ सकते हैं कि ऐसी शङ्का करना ही वास्तव में व्यर्थ है । दूसरी बात शास्त्रकार तो प्रायः सामान्य विधि का ही निर्देश करते हैं। उसके प्रसिद्ध व्यवहारों का निर्देश तो वक्ताओं व श्रोताओं की बुद्धि पर ही आश्रित रहता है । स्थूल दृष्टि से विचार करने पर भी मालूम हो सकता है कि कई वस्तुएं ऐसी हैं जो अपने साथ उपयोग में आने वाली दूसरी वस्तु को चट मांग लेती हैं। जैसे - रजोहरण की फलियों को दंडी से बांधने के लिए डोरी की आवश्यकता रहती है और वह आगम प्रमाण के बिना भी बांधी जाती है। साध्वी के पहनने का चोलपट्टक (साड़ी) का विधान है किन्तु वह किससे और कैसे बांधना, इसका वर्णन नहीं होने पर भी उपयोग के अनुसार साधन लिये ही जाते हैं । जैसे पाजामा व लहेंगा कमर से बांधने के लिए चट नाड़े की आवश्यकता हो ही जाती है । यदि कोई इनका प्रमाण मांगे तो वह अज्ञानी समझा जाता है। इसी प्रकार मुखवस्त्रिका के लिए भी समझें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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