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मुखवस्त्रिका सिद्धि
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___ यह आचारांग का वचन केवल लज्जा निवारण के लिए वस्त्र रखने का विधान विशेष क्रिया रूप से ही करता है। इससे तो कोई यह भी तर्क कर सकता है कि - कटि वस्त्र के सिवाय अधिक वस्त्र रखना भी अनुचित होगा? पर यह तो हमारे तर्ककर्ता सुन्दरजी को भी मान्य नहीं है। और इससे तो इनका हाथ में वस्त्र रखना भी उड़ जाता है। फिर इन्हें यह कर-वस्त्र भी त्याग देना चाहिये, क्योंकि इस सूत्र से तो यह भी रखना सिद्ध नहीं होता।
सुन्दरजी को मुखवस्त्रिका के प्रति अपने वैर भाव को छोड़ कर शान्त एवं शुद्ध हृदय से विचार करना चाहिये कि सूत्रकार ने विधिवाद में साधु-साध्वियों के पछेवड़ी, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका आदि रखने की आज्ञा दी है। यह सूत्र तो अपवाद रूप विशेष शक्ति वालों के लिये अचेलक आदि विशेष क्रिया का ही प्रतिपादक है फिर भी वहाँ धार्मिक उपकरण व खास कर साधु वेष को बताने वाले मुखवस्त्रिकादि का अभाव नहीं होता। केवल परीषह सहन ही इसका मुख्य उद्देश्य है और मुखवस्त्रिका जो मुँह पर बाँधी जाती है, इससे भी कष्ट (परीषह) तो होता ही है। अतएव यहाँ धार्मिक उपकरण को उड़ाने के लिये उक्त सूत्र की साक्षी देना सत्य का खून करना है। वैसे तो श्री सुन्दरजी ने भी प्रश्न व्याकरण का प्रमाण देकर मुखवस्त्रिका रखना मान्य किया है। फिर ऐसा प्रमाण (जो मुखवस्त्रिका के लिये लागू नहीं होता) देने से क्या लाभ है? इससे तो इनका हाथ में वस्त्र रखना भी उड़ जाता है। फिर इसमें तो इन्होंने केवल 'डोरे" से ही द्वेष प्रदर्षित किया है वह सर्वथा अनुचित है। ऐसी थोथी दलील से इनका अभीष्ट कदापि सिद्ध नहीं हो सकता। उल्टी मतोन्मत्ता ही टपकती है।
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