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मुखवस्त्रिका सिद्धि
समाधान - यह शंका भी अज्ञान या मत मोह से प्रेरित होकर ही की गई है। क्योंकि दशवैकालिक सूत्र के उस प्रमाण से मुखवस्त्रिका का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । यह " हत्थग " शब्द दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अ० प्रथमोद्देश की ८३ वीं गाथा में आया है। उस सारी गाथा को यहाँ लिख कर समाधान किया जाता है
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अन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छिन्नंमि संवुडे ।
" हत्थगं" संपमज्जिता, तत्थ भुंजिज्ज संजए ॥ ८३ ॥ अर्थ- बुद्धिमान् साधु गृहस्थ की आज्ञा लेकर ढके हुए स्थान में उपयोग सहित प्रमार्जनी (पूँजनी - रजोहरणी) से शरीर के हाथ पाँवादि अवयवों को सम्यक् प्रकार से प्रमार्जन कर वहाँ भोजन करे ।
इस गाथा में जो " हत्थग" शब्द आया है वह हाथ आदि अवयवों को प्रमार्जनी से पूँजने के अर्थ को बताने वाला है और यही अर्थ यहाँ उपयुक्त एवं प्रकरण के अनुकूल भी है। क्योंकि वहाँ हाथ आदि को प्रमार्जन करने की आवश्यकता है, न कि बोलने की, उल्टा उस समय तो मुखवस्त्रिका को मुँह से पृथक् करना पड़ता है। कारण भोजन समय का प्रसंग है और प्रमार्जन क्रिया जो है वह प्रमार्जनी से ही होती है | मुखवस्त्रिका से प्रमार्जन करने की तो कोई विधिही नहीं है। टीकाकार ने जो " हत्थग" शब्द का अर्थ - मुखवस्त्रिका किया है, यह केवल अर्थ का अनर्थ ही मालूम होता है । मुखवस्त्रिका को किसी भी स्थान पर 'हत्थग' नहीं कहा है। इस तरह शब्दों की खींचतान कर अपना पक्ष जमाना निष्फल प्रयास ही है।
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