________________
मुखवस्त्रिका सिद्धि
४१
**************************************
हो सकती है। इसमें मुखवस्त्रिका कोई खास बाधा नहीं पहुँचाती और दोष सेवन करने वाला जिसे शुद्ध संयम पालन करने का प्रेम ही नहीं है, वो यदि मुखवस्त्रिका खोलकर भी ऐसे दोषों का सेवन करे तो भी इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि वहाँ तो प्रायश्चित्त कहा है। इसलिए ऐसी निरर्थक बातों का प्रमाण देना, स्वयं प्रमाणों का अभाव सिद्ध करना है।
(११) निशीथ सूत्र के पाँचवें उद्देशे में विभूषा के लिए दाँत घिसने का जो दण्ड निर्माण किया है, उससे भी हाथ में वस्त्र रखना सिद्ध नहीं . हो सकता। क्योंकि इसी सूत्र में आगे चलकर गुह्य प्रदेश की शोभा बढ़ाने के सम्बन्ध में भी वर्णन आता है। अगर विभूषा का अर्थ लोगों में शोभा प्रदर्शित करना ही किया जायगा तो दाँतों पर तो फिर भी सामुदायिक साधुओं की दृष्टि पड़ सकती है किन्तु गुप्ताङ्ग का सम्मार्जन किसे दिखाने के लिये है? फिर यहाँ विभूषा कैसी? इस विषय में तो आपको नग्नता ही माननी पड़ेगी? तभी गुप्ताङ्ग की शोभा का प्रायश्चित्त विधान सच्चा हो सकता है। महाशय! जरा गीतार्थों से सूत्र के रहस्य समझो और फिर अन्य को समझाने बैठो। अन्यथा “लेने गई पूत, और खो गई खसम" वाली कहावत चरितार्थ होगी। अतएव इस तर्क में भी कोई तथ्य नहीं है।
(१२) अब इनके दशवैकालिक के दूसरे प्रमाण पर विचार करते हैं। इन्होंने जयं भुंजतो "भासंतो" शब्द पर से ही अपने कर वस्त्र की
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org