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मुखवस्त्रिका सिद्धि
ऐसा कई बार देखने, सुनने व अनुभव में आया है कि प्रमाद के कारण व्रत का स्मरण नहीं रहने से जिस वस्तु का त्याग किया गया है वो (या उपवासादि प्रसंग में कोई ) वस्तु अचानक मुँह में डाल दी जाती है। और फिर व्रत का स्मरण होता है तब पश्चात्ताप होता है । ठीक ऐसे ही प्रसंग का यह आगार है। इसमें इसी तरह समझना होगा कि -
यदि किसी साधु ने कुछ व्रत (उपवासादि) किया हो, और भिक्षाचरी के समय अन्य गुर्वादि साधुओं के लिए आहारादि लाया हो और सदैव के अभ्यास (मुहावरे ) के कारण व्रत का स्मरण नहीं रहने से भोजन करने बैठा हो, और कुछ त्यागी हुई वस्तु मुँह में डाल भी ली हो, अथवा एक पात्र में दूध, दाल, पानी आदि परिवर्तन करते समय उस प्रवाही वस्तु का छींटा उड़ कर मुँह में गिर गया हो तो वैसे प्रसंग का यह आगार बताया गया है। ऐसे प्रसंगों का सहारा लेकर अपनी शिथिलाचार रूपी खुले मुँह रहने की प्रवृत्ति को शास्त्र सम्मत कहना मानो डूबते हुए को तिनके का सहारा लेना है। ऐसा प्रयास सदा निष्फल ही सिद्ध होता है।
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(ह)
वैसे ही दशवैकालिक की अनाचार सम्बन्धी व्याख्या में दन्तधावन और दर्पण में मुँह देखने आदि के अनाचार विषयक कुतर्क की गई है।
ज्ञानसुन्दरजी को मुखवस्त्रिका हाथ में रखने का जब सूत्र मान्य कोई प्रमाण नहीं मिला, तब ऐसे अनाचारों का नाम लेकर आपने अपना पक्ष कुछ समय के लिए कायम रखने व स्वमान्य
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